30-01-2012, 05:07 PM
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#21
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
Quote:
Originally Posted by Dr. Rakesh Srivastava
ज़फ़ा की ही अदा तुम हुस्न वालों को क्यों आती है ;
किसी का दिल बहलता है , किसी की जान जाती है .
उतरता हूँ मैं अपनी छत से जितना मिलने को तुझसे ;
अकड़ गर्दन की तेरी उतनी ही क्यों बढ़ती जाती है .
तू है आईना , तुझमे अक्स मिटते बनते रहते हैं ;
तेरी तस्वीर मेरे दिल से क्यों मिटने न पाती है .
तुम्हारे प्यार का सावन कभी का थम चुका लेकिन ;
हमारी आँख की बरखा कभी थमने न पाती है .
मैं जब ये जानता हूँ , तू मुझे अब मिल नहीं सकती ;
तेरे आने की आहट फिर भी क्यों कानों में आती है .
उजालों में भले ही तू मुझे हासिल न हो लेकिन ;
मेरी हर रात तेरे ख़्वाब का उत्सव मनाती है .
जो हासिल हो नहीं सकता , वही क्यों दिल लुभाता है ;
पहेली ऐसी है , जिसको न दुनिया बूझ पाती है .
फ़िज़ा में ये महक और ये नशा छाया अचानक क्यों ;
हवा , क्या बेवफ़ा महबूब की गलियों से आती है !
रचयिता ~~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड -2 , गोमती नगर , लखनऊ .
(शब्दार्थ ~~ ज़फ़ा = बेवफाई / अन्याय , अक्स = परछाई / छाया , फ़िज़ा = atmosphere / वातावरण )
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डॉक्टर साहब , आप शब्दों के जादूगर हैं .............इन्हें पिरोना कोई आपसे सीखे ...........!
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