जिसने ग़म को साध लिया
चितवन करती काम तमाम ;
क़ातिल बनता है अन्जान .
जब से उनसे आँख लड़ीं ;
कितना छोटा हुआ जहान .
पत्थर में धड़कन ढूंढें ;
उम्मीदें कितनी नादान .
वो मेरे ख़ातिर क्या हैं ;
उनको शायद नहीं गुमान .
आँखों में वो कौंध उठें ;
कानों में जब पड़े अजान .
हुस्न हमेशा ईद मनाये ;
आशिक की किस्मत रमजान .
जिसने ग़म को साध लिया ;
जग में पायी है पहचान .
ज़ख्म सजाकर पेश किये ;
ग़ज़लों की चल पड़ी दुकान .
रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2, गोमती नगर , लखनऊ .
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