Re: कुछ यहाँ वहां से............
हम जहां कहेंगे बस वहीं छपेंगे कार्टून -सहीराम॥
यह वो भीड़ नहीं थी, जो सिनेमाघरों पर हमले करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जो वाटर जैसी फिल्मों की शूटिंग नहीं होने देती थी। यह वो भीड़ भी नहीं थी जो हुसैन की प्रदर्शनियों में घुस जाती थी और तोड़-फोड़ करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जो सहमत की प्रदर्शनियों पर हंगामा करती थी। यह वो भीड़ तो नहीं थी जिसके डर से आर्ट गैलरियां हुसैन की पेंटिंगें प्रदर्शित नहीं करती थी और सरकारी आयोजनों में भी उन्हें शामिल नहीं किया जाता था। ये वो लोग भी नहीं थे जो देश में जगह-जगह हुसैन पर मुकदमे दायर करते रहते थे और जिन्होंने उन पर इतने मुकदमे लाद दिए थे कि वे देश छोड़कर ही चले गए। देश निकाला ऐसे भी दिया जाता है। वे फिर कभी वापस नहीं आए। यह वो भीड़ भी नहीं थी जो हबीब तनवीर के नाटक नहीं होने देती थी। यह वह भीड़ भी नहीं थी जो महाराष्ट्र में लेन की लिखी शिवाजी वाली पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग करती थी और भंडारकर इंस्टीट्यूट में तोड़फोड़ करती थी। यह महाराष्ट्र में ही रोहिंग्टन मिस्त्री के उपन्यास सच ए लांग जर्नी पर प्रतिबंध की मांग करनेवाली भीड़ भी नहीं थी।
ये वे लोग भी नहीं थे जिन्होंने कभी जेएनयू में पाकिस्तानी शायर फहमीदा रियाज की एक नज्म पर हंगामा बरपा कर दिया था। ये वे लोग भी नहीं थे जो कभी अमृता प्रीतम की कविताओं पर नाराज हो उठे थे। ये वे लोग भी नहीं थे जिनसे तस्लीमा नसरीन भागी फिरती हैं। ये वे धर्म के रक्षक भी नहीं थे जो कभी सलमान रश्दी के खून के प्यासे हो उठते हैं और कभी किसी डैनिश कार्टूनिस्ट के सिर पर करोड़ों का इनाम रखने लगते हैं। ये सिर्फ तृणमूल कांग्रेसवाले भी नहीं थे, जिन्होंने अपनी नेता का एक कैरीकेचर फारवर्ड करने के जुर्म में एक प्रोफेसर को जेल पहंुचा दिया था। ये इनमें से बेशक कोई नहीं थे, पर उन्हीं की जमात के लग रहे थे, उनसे काफी मिलते जुलते। वे कोई उन्मादी भीड़ नहीं थे, फिर भी उन्माद पता नहीं क्यों वैसा ही दिखता था। वे कोई हुड़दंगी भी नहीं थे। पर आक्रामक उतने ही थे। लोग पहचानने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर वे हैं कौन?
और देखो, वे तो अपने सांसद ही निकले। हमारे भाग्यविधाता। वे संसद की सर्वोच्चता के लिए चिंतित थे और उसे स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे नेताओं की बिगड़ती छवि को लेकर चिंतित थे। पर खुद अपनी बेहतर छवि गढ़ने की बजाय या किसी पी आर एजेंसी की मदद लेने की बजाय यह चाहते थे कि पाठ्यपुस्तकों से उनकी बेहतर छवि बनाई बनाई जाए। वे बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए उतने चिंतित नहीं थे, जितने चिंतित वे इस बात को लेकर थे कि बच्चों के दिलोदिमाग में उनकी छवि अच्छी बने। और इसीलिए वे उन्हें ऐसी शिक्षा से, ऐसी पुस्तकों से दूर रखना चाहते थे, जिनसे उन्हें आशंका थी, बल्कि डर लग रहा था कि उनके मस्तिष्क प्रदूषित हो सकते हैं। पर वास्तव में यह प्रदूषण की चिंता नहीं थी। क्योंकि वे उन पुस्तकों को लेकर तो कभी चिंतित नजर नहीं आए जो बच्चों के दिलो-दिमाग को सांप्रदायिकता से प्रदूषित कर रही हैं, विषाक्त बना रही हैं और जिन्हें कुछ शिक्षण संस्थाएं बाकायदा अपने पाठ्यक्रमों में रखे हुए हैं।
खैर , वे बेहद नाराज थे। क्योंकि वे चिंतित थे। वे उन पुस्तकों से नाराज थे , जिनमें नेताओं के कार्टून छपे हैं। वे आजकल के नहीं , बल्कि साठ साल पुराने कार्टूनों से भी नाराज थे। वे बेहद गुस्से में थे , क्योंकि वे चिंतित थे कि नेताओं की छवि बिगाड़ी जा रही है। वे सरकार को घेर रहे थे , सरकार अपने मंत्रियों को घेर रही थी , घिरे हुए मंत्री तुरंत कार्रवाई करने पर तत्पर थे। क्योंकि वे सब एक थे। अपनी छवि से चिंतित और जनता से पीडि़त। वे कह रहे थे कि हमें कार्टूनों से एतराज नहीं हैं। वे पत्र - पत्रिकाओं में छपें , पर पाठ्यपुस्तकों में न छपें। आखिर तो वे हमारी अभिव्यक्ति की आजादी के रक्षक हैं। अभिव्यक्ति की आजादी जिंदाबाद !
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मांगो तो अपने रब से मांगो;
जो दे तो रहमत और न दे तो किस्मत;
लेकिन दुनिया से हरगिज़ मत माँगना;
क्योंकि दे तो एहसान और न दे तो शर्मिंदगी।
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