Re: श्रीयोगवशिष्ठ
जैसे खाईं के उपर तृण और पात होते हैं और उससे खाईं आच्छादित हो जाती है उसको देख हरिण कूदकर दुःख पाता है वैसे ही मूर्ख भोग को सुखरूप जानकर भोगने की इच्छा करता है और जब भोगता है तब जन्म से जन्मान्तररूपी खाईं में जा पड़ता है और दुःख पाता है । हे मुनीश्वर! भोगरूपी चोर अज्ञानरूपी रात्रिमें आत्मा रूपी धन लूट ले जाता है, पर उसके वियोग से महादीन रहता है । जिस भोग के निमित्त यह यत्न करता है वह दुखरूप है । उससे शान्ति प्राप्त नहीं होती और जिस शरीर का अभिमान करके यह यत्न करता है वह शरीर क्षणभंगुर और असार है । जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख और जड़ है । उसका बोलना और चलना भी ऐसा है जैसे सूखे बाँस के छिद्र में पवन जाता है और उसके वेग से शब्द होता है । जैसे थका हुआ मनुष्य मारवाड़ के मार्ग की इच्छा नहीं करता वैसे ही दुःख जानकर मैं भोग की इच्छा नहीं करता । लक्ष्मी भी परम अनर्थकारी है जब तक इसकी प्राप्ति नहीं होती तब तक उसके पाने का यत्न होता है और यह अनर्थ करके प्राप्त होती है ।
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