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Old 10-06-2012, 12:59 PM   #50
neelam
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

तृष्णारूप तरंग को लक्ष्मी समुद्र है, तृष्णारूप भँवर को लक्ष्मी कमलिनी है और जन्मके दुःखरूपी जल का लक्ष्मी गड्ढ़ा है । हे मुनीश्वर! देखने में यह सुन्दर लगती है । यह दुख का कारण है । जैसे खड्ग की धार देखने में सुन्दर होती है और स्पर्श करने से नाश करती है वैसे ही यह लक्ष्मी विचार रूपी मेघ का नाश करने को वायु है । हे मुनीश्वर! यह मेंने विचार करके देखा है कि इसमें कुछ भी सुख नहीं । सन्तोषरूपी मेघ का नाश करनेवाली लक्ष्मी शरत्काल है । मनुष्य में गुण तब तक दृष्टि आते हैं जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब शुभ गुण नष्ट हो जाते हैं । हे मुनीश्वर! लक्ष्मी को ऐसी दुःखदायक जानकर इसकी इच्छा मैंने त्याग दी है । यह भोग मिथ्या है जैसे बिजली प्रकट होकर छिप जाती है वैसे ही लक्ष्मी भी प्रकट होकर छिप जाती है । जैसे ही जल शीतलता से हिम होता है वैसे ही लक्ष्मी मनुष्य को जड़ सा बना देती है । इसको छलरूप जान कर मैंने त्याग दिया है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे लक्ष्मीनैराश्य वर्णनन्नामाष्टमस्सर्गः ॥८॥
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