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Dark Saint Alaick
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Default Re: ब्लॉग वाणी

विचारों से उत्पन्न होता है सृजन

-प्रवीण पांडेय

विचारों का प्रवाह सदा अचम्भित करता है। कुछ लिखने बैठता हूं। विषय भी स्पष्ट होता है। प्रस्तुति का क्रम भी। यह भी समझ आता है कि पाठकों को क्या संप्रेषित करना चाहता हूं। एक आकार रहता है पूरा का पूरा। एक लेखक के रूप में बस उसे शब्दों में ढालना होता है। शब्द तब नियत नहीं होते हैं। उनका भी एक आभास सा ही होता है विचारों में। शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं। जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। विचार घुमड़ने लगते हैं। लगता है कि मन में एक प्रतियोगिता सी चल रही है। एक होड़ सी मची हैं। कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं। कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है। आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है। सृजन होता रहता है। पूरा लेख लिखने के बाद जब मैं तुलना करने बैठता हूं कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे सहसा सामने आ जाते हैं। न जाने कहां से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं। ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे। उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है। आप माध्यम बन जाते हैं। आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूं। उस प्रक्रिया को दे रहा हूं जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुन: यही सोचने को विवश हो जाता हूं कि किसे श्रेय दूं। श्रेय लेने के लिए यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है। सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूं। सृजन के तीन अंग हैं। साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें पर मेरे लिए क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो। विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता दोनों ही विशेष साधना मांगती है कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें। तीनों में सिद्धहस्त। पर सबसे पहले साहित्य लिखा,फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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