Re: ब्लॉग वाणी
फिर बोझ नहीं रहेंगी लड़कियां?
-सुनील अमर
लड़की को बोझ समझने की प्रवृत्ति में कमी क्यों नहीं आ रही है? मेडिकल पत्रिका लॉंसेट का अनुमान है कि भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख से अधिक कन्या-भ्रूण हत्याऐं होती हैं। हालिया जनगणना से यह भी साफ हो चुका है कि इसके पीछे गरीबी नहीं बल्कि दूषित मानसिकता मुख्य कारण है। सच्चाई तो यह है कि गरीबों के लिए बेटियां बोझ हैं ही नहीं क्योंकि वहां पेट भरने की दैनिक जुगत के आगे खर्चीली शादी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिन दक्षिणी राज्यों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति शुरु से दमदार थी वहां भी अब दहेज की कुप्रवृत्ति तेजी से पांव पसार रही है। बेवजह की शान के लिए लड़कियां पहले भी मारी जाती रही और आज भी ‘आॅनर किलिंग’ सार्वजनिक रुप से हो ही रही है। जब तक नहीं मारी जा रही हैं तब तक उनके उठने-बैठने,चलने-फिरने, कपड़े पहनने और मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल करने तक पर मर्दों द्वारा अंकुश लगाया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि मर्द अगर भ्रष्ट हैं तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ औरत है। ऐसे में इसका हल क्या हो? जवाहरलाल नेहरु विवि में समाजशास्त्र की फेलो और महिलावादी लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी इसका सीधा और सपाट त्रिसूत्री उपाय बताती हैं- लड़कों की तरह उच्च शिक्षा, लड़कों जितनी आजादी और पारिवारिक सम्पत्ति में बराबर हिस्सा। ये तीन उपाय कर दीजिए तो फिर आपकी लड़की आपपर बोझ नहीं रह जाएगी और जैसे आपका लड़का पढ़-लिखकर अपना जीवन जीने का रास्ता खोज लेता है, आपकी लड़की उससे भी अच्छी तरह अपना रास्ता बना लेगी। अब यही एक विकल्प बचता है कि पुराने कानूनों की समीक्षा कर ऐसे नए और कठोर कानून बनाए जाएं जो बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में न सिर्फ बराबर हिस्सा दिलाएं बल्कि उनकी सारी शिक्षा और शैक्षणिक व्यय को सरकार द्वारा वहन किए जाने की गारण्टी भी दे। राज्य सरकारें लड़कियों के जन्म पर धनराशि, स्कूलों में सायकिल, माध्यमिक शिक्षा पूरी करने पर कुछ हजार रुपये तथा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी पर भी मदद दे रही हैं लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि यह वोट लेने का नाटक होकर रह गया है। 1994 में देश में भ्रूण परीक्षण कानून बना तथा 1996 में इसमें संशोधन कर और सख्त बनाया गया लेकिन क्रियान्वयन में ढिलाई के चलते नौबत आज यहां तक आ पहुंची है कि न सिर्फ पोर्टेबुल अल्ट्रासाउन्ड मशीन को सायकिल पर लादकर गांव-गांव,गली-गली मात्र 400-500 रुपयों में भ्रूण परीक्षण किए जा रहे हैं बल्कि अब इन्टरनेट पर भी चंद रुपयों में ऐसी सामाग्री उपलब्ध है जिसे खरीद कर कोई भी अपने घर पर ही ऐसा परीक्षण कर सकता है। जाहिर है कि सिर्फ रोक लगाने के कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकते। समस्या तभी हल हो सकती है जब इसे समस्या ही न रहने दिया जाय। लड़कियों से धार्मिक कर्म कांड और मां-बाप का अंतिम संस्कार कराने जैसे कार्यो को राजकीय संरक्षण मिलना ही चाहिए। लड़कियों की कमी का कहर भी हमेशा की तरह गरीब और निम्न जाति के युवकों पर ही टूटना तय है क्योंकि हमारे समाज की मानसिकता लड़की को अमीर घर में ब्याहने की है और अमीरों की शादियां तो कई रास्तों से हो जाती हैं। इसलिए सरकार को अब इस समस्या के निदान के लिए पूरी तरह से कमर कस लेने का वक्त आ गया है। भावनात्मक नारों और नैतिकता का पाठ पढ़ाने के प्रयोग असफल हो चुके हैं, यह ताजा जनगणना के आंकड़ों ने बता दिया है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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