Re: इस्लाम के पैग़म्बर :हज़रत मुहम्मद (सल्ल. )-प
प्रतिरक्षात्मक युद्ध
विरोधियों से समझोते और मेल-मिलाप के लिए आपने बार-बार प्रयास किए, लेकिन जब सभी प्रयास बिल्कुल विफल हो गए और हालात ऐसे पैदा हो गए कि आपको केवल अपने बचाव के लिए लड़ाई के मैदान में आना पड़ा तो आपने तणनीति को बिल्कुल ही एक नया रूप दिया। आपके जीवन-काल में जितनी भी लड़ाइयाँ हुईं-यहाँ तक कि पूरा अरब आपके अधिकार-क्षेत्र में आ गया- उन लड़ाइयों में काम आनेवाली इंसानी जानों की संख्या चन्द सौ से अधिक नहीं है।आपने बर्बर अरबों को सर्वशक्तिमान अल्लाह की उपासना यानी नमाज़ की शिक्षा दी, अकेले-अकेले अदा करने की नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से अदा करने की,यहाँ तक कि युद्ध-विभीषिका के दौरान भी। नमाज़ का निश्चित समय आने पर- और यह दिन में पाँच बार आता है- सामूहिक नमाज़ (नमाज़ जमाअत के साथ) का परित्याग करना तो दूर उसे स्थगित भी नहीं किया जा सकता। एक गिरोह अपने ख़ुदा के आगे सिर झुकाने में,जबकि दूसरा शत्रू से जूझने में व्यस्त रहता। तब पहला गिरोह नमाज़ अदा कर चुकता तो वह दूसरे का स्थन ले लेता और दूसरा गिरोह ख़ुदा के सामने झुक जाता।
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