Re: ब्लॉग वाणी
खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
-समीर लाल समीर
मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है। फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है? जाते तो हम आप हैं। एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता। फिर तो हर बेवकूफियां यूं ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई। आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों। बिना किसी प्रयास के बस यूं ही सहज भाव से। इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया। अब भला कौन जान पायेगा? यूं गर कोई समझ भी जाए तो हंस तो चुके ही हैं कह लेंगे मजाक किया था। उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आए हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई एक मजाक ही तो किया था। अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता। एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर। और उस उदासी की वजह सोचो तो फिर वहीं ठहाका। बिना किसी प्रयास के। सहज ही। कहां चलता है रास्ता? कहां जाती है सड़क? वो तो जहां है वहीं ठहरी होती है। हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से। सुबह जहां से शुरु हों, शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर। हासिल एक दिन गुजरा हुआ। हां, दिन चलता है। चलते चलते गुजर जाता है। जैसे की हमारी सोच। हमारे अरमान। हमारी चाहतें। सब चलती हैं। गुजर जाती हैं। ठहर जाता हूं मैं। जाने किस ख्याल में डूबा। उस रुके हुए रास्ते पर। सड़क कह रहा था न उसे, जो जाती थी मेरी घर तक। वो कहता कि सड़क जाती है वहां जो जगह वो जानती है। अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे। एक अरमान थामें। मगर सड़क जाएगी घर तक। तो मेरी सड़क क्यूं नहीं जाती मेरे उस घर तक। जहां खेला था बचपन, जहां संजोये थे सपने, अपने खून वाले रिश्तों के साथ। कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है। बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहां मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है। मकान नहीं पहचानती सड़क। घर रहा नहीं। कई बरस हुए उसे गुजरे। तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर। जहां से सुबह चलता हूं और शाम फिर वहीं नजर आता हूं इस अजब शहर में। जो खोया रहता है बारहों महिन। छुपा हुआ कोहरे की चादर में। किसी बेवकूफी को ढांपने का उसका यह तरीका तो नहीं? एक ठहाका लगाता हूं। ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं। तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूं तो पहाड़ी की ऊंचाई जिसे छिल छिल कर बनाए छितराए चौखटे मकान। अलग-अलग बेढब रंगों के। कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की। हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर। छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में। और मैं गुनगुनाता हूं अपनी ताजी गजल-
भले हों दूरियां कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते उन्हें तुम तोड़ मत देना
उसी घर के ही आंगन में बसी है याद बचपन की
खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना!
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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