प्यार बनाम परम्परा
मुझको हर हाल में पाने की फ़िक्र है तुमको ;
अपने माँ - बाप , घराने की फ़िक्र है हमको .
जो मैं उनकी न हुई , तेरी क्या हो पाऊँगी ;
तुमको एहसास कराने की फ़िक्र है हमको .
हमारी ख़्वाहिशों को फ़र्ज़ जो समझे अब तक ;
उनका हक़ बनता है , उनकी भी फ़िक्र हो हमको .
न तिलमिलाये रवायत न असल प्यार घुटे ;
लोच दोनों में ही लाने की फ़िक्र है हमको .
कुल मिलाकर रवायतें हैं बेहतरी के लिये ;
इनसे तावीज़ बँधाने की फ़िक्र है हमको .
अदब में उनके लम्बा वक़्त गुज़ारें तन्हा ;
उनको महसूस तो हो , उनकी फ़िक्र है हमको .
दौर की माँग ग़र सलीके से हम पेश करें ;
उनके दिल बोलेंगे - " बच्चों की फ़िक्र है हमको ."
रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .
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