14-10-2012, 12:45 AM
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Re: दुर्गा पूजा 2012
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि सन १९७१ में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह 'दुर्गा' कोई सांस्कृतिक मिथ नहीं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में 'देवी' कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
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