Re: दुर्गा पूजा 2012
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है,पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। यदि हुसैन जैसे चित्रकार दुर्गा की प्रतिमा के बहाने स्त्री अंगों की वकालत करते हैं तो यह उनकी कला का चरम व्यावसायिकता और स्त्री की छवि के विरुद्ध एक सार्वजनिक उपहास है। दुर्गा एक सुंदर स्त्री भी है, जिनके पास पुष्ट उन्नत उरोज़, विशाल जंघाएँ और एक जोड़ी तेजस्वी आँखें भी हैं। इनमें काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली हाथ भी हैं।
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