तुमको क्या मालूम.....!
तुमको क्या मालूम तुम्हारे बिन मैं कैसे जीता हूँ ;
ख़्वाब शहद - से जीवन के थे , उम्र नीम - सी पीता हूँ .
दिखने को तो बाहर से संपन्न दिख रहा हूँ सबको ;
कोई नहीं बस मैं जानूं भीतर से तुझ बिन रीता हूँ .
ऊंचा उड़ने की चाहत में बोझ समझ तुम छोड़ गयी ;
तेरी अभिलाषा में बाधक वक़्त तेरा मैं बीता हूँ .
साथ छोड़ना ही था तो मुझको क्यों तू भरमाती थी ;
' राम बनाकर रक्खूंगी , तेरी भावी परिणीता हूँ ' .
खुशियों की उम्मीद जगा तू ज़ख्म लगाकर दूर हुई ;
ग़ज़ल रिसा करतीं उतनी , ज़ख्मों को जितना सीता हूँ .
रोने को भी हुनर में मैंने जबसे है तब्दील किया ;
अपने गम को बेच के अब मैं इस दुनिया में जीता हूँ .
दुनियादारी का अंकुश पाखण्ड करा ले चाहे जो ;
पर सच है हर सच्चे आशिक़ सा स्मृतियाँ जीता हूँ .
रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .
( शब्दार्थ ~ परिणीता = ब्याहता स्त्री )
|