View Single Post
Old 10-11-2012, 02:39 PM   #36
teji
Diligent Member
 
teji's Avatar
 
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22
teji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to beholdteji is a splendid one to behold
Default Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश

स्त्री : यह खामखाह का तानाबाना क्यों बुन रहे हैं ? जो असल बात कहना चाहते हैं, वही क्यों नहीं कहते ?
पुरुष चार : असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करतीं कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या मनमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्यों की तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है-कितना-कुछ एक साथ हो कर, कितना-कुछ एक साथ पा कर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता। इसलिए जिस-किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती। वह आदमी भी इसी तरह तुम्हें अपने आसपास सिर पटकता और कपड़े फाड़ता नजर आता और तुम...
स्त्री : (साड़ी का पल्लू दाँतो में लिए सिर हिलाती हँसी और रुलाई के बीच के स्वर में) हहहहहहहह हःह- हहहहह-हःहहः हःह हःह।
पुरुष चार : (अचकचा कर) तुम हँस रही हो ?
स्त्री : हाँ...पता नहीं...हँस ही रही हूँ शायद। आप कहते रहिए ।
पुरुष चार : आज महेंद्र एक कुढ़नेवाला आदमी है। पर एक वक्त था जब वह सचमुच हँसता था। अंदर से हँसता था पर यह तभी था जब कोई साबित करनेवाला नहीं था कि कैसे हर लिहाज से वह हीन और छोटा है - इससे, उससे, मुझसे, तुमसे, सभी से। जब कोई उससे यह कहनेवाला नहीं था कि जो-जो वह नहीं है, वही-वही उसे होना चाहिए और जो वह है... ।
स्त्री : एक उसी उस को देखा है आपने इस बीच - या उसके आस-पास भी किसी के साथ कुछ गुजरते देखा है ?
पुरुष चार : वह भी देखा है। देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना-कुछ एक साथ भर लेना चाहती थीं, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया। जिस दिन तुम्हें एक बहुत बड़ा झटका खाना पड़ा...अपनी आखिरी कोशिश में।
स्त्री : किस आखिरी कोशिश में ?
पुरुष चार : मनोज का बड़ा नाम था। उस नाम की डोर पकड़ कर ही कहीं पहुँच सकने की आखिरी कोशिश में। पर तुम एकदम बौरा गईं जब तुमने पाया कि वह उतने नामवाला आदमी तुम्हारी लड़की को साथ ले कर रातों-रात इस घर से...।
बड़ी लड़की : (सहसा उठती) यह आप क्या कह रहे हैं, अंकल ?
पुरुष चार : मजबूर हो कर कहना पड़ रहा है, बिन्नी ! तू शायद मनोज को अब भी उतना नहीं जानती जितना...!
बड़ी लड़की : (हाथों में चेहरा छिपाए ढह कर बैठती) ओह !
पुरुष चार : ...जितना यह जानती है। इसीलिए आज यह उसे बरदाश्त भी नहीं कर सकती। (स्त्री से) ठीक नहीं है यह ? बिन्नी के मनोज के साथ चले जाने के बाद तुमने एक अंधाधुंध कोशिश शुरू की - कभी महेन्द्र को ही और झकझोरने की, कभी अशोक को ही चाबुक लगाने की, और कभी उन दोनों से धीरज खो कर कोई और ही रास्ता, कोई और ही चारा ढूँढ़ सकने की। ऐसे में पता चला जगमोहन यहाँ लौट आया है। आगे के रास्ते बंद पा कर तुमने फिर पीछे की तरफ देखना चाहा। आज अभी बाहर गई थीं उसके साथ। क्या बात हुई ?
स्त्री : आप समझते हैं आपको मुझसे जो कुछ भी जानने का जो कुछ भी पूछने का हक हासिल है ?
पुरुष चार : न सही ! पर मैं बिना पूछे ही बता सकता हूँ कि क्या बात हुई होगी। तुमने कहा, तुम बहुत-बहुत दुखी हो आज। उसने कहा, उसे बहुत-बहुत हमदर्दी है तुमसे। तुमने कहा, तुम जैसे भी हो अब इस घर से छुटकारा पा लेना चाहती हो। उसने कहा, कितना अच्छा होता अगर इस नतीजे पर तुम कुछ साल पहले पहुँच सकी होतीं। तुमने कहा, जो तब नहीं हुआ, वह अब तो हो ही सकता है। उसने कहा, वह चाहता है हो सकता, पर आज इसमें बहुत-सी उलझनें सामने हैं - बच्चों की जिदंगी को ले कर, इसको-उसको ले कर। फिर भी कि इस नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा, पता नहीं कब छोड़ दे, इसीलिए अपने को ले कर भी उसका कुछ तय नहीं है इस समय। तुम गुमशुम हो कर सुनती रहीं और रूमाल से आँखें पोंछती रहीं। आखिर उसने कहा कि तुम्हें देर हो रही है, अब लौट चलना चाहिए। तुम चुपचाप उठ कर उसके साथ गाड़ी में आ बैठीं। रास्ते में उसके मुँह से यह भी निकला शायद कि तुम्हें अगर रुपए-पैसे की जरूरत है इस वक्त तो वह...
स्त्री : बस बस बस बस बस बस ! जितना सुनना चाहिए था, उससे बहुत ज्यादा सुन लिया है आपसे मैंने। बेहतर यही है कि अब आप यहाँ से चले जाएँ क्योंकि...
पुरुष चार : मैं जगमोहन के साथ हुई तुम्हारी बातचीत का सही अंदाज लगा सकता हूँ, क्योंकि उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी तुमसे यही सब कहा होता। वह कल-परसों फिर फोन करने को कह कर घर के बाहर उतार गया। तुम मन में एक घुटन लिए घर में दाखिल हुई और आते ही तुमने बच्ची को पीट दिया। जाते हुए वह सामने थी एक पूरी जिंदगी - पर लौटने तक का कुल हासिल?... उलझे हाथों का गिजगिजा पसीना और...।
स्त्री : मैंने आपसे कहा है न, बस ! सब-के-सब...सब-के-सब! एक-से! बिलकुल एक-से हैं आप लोग ! अलग-अलग मुखोटे, पर चेहरा? चेहरा सबका एक ही !
पुरुष चार : फिर भी तुम्हें लगता रहा है कि तुम चुनाव कर सकती हो। लेकिन दाँए से हट कर बाँए, सामने से हट कर पीछे, इस कोने से हट कर उस कोने में... क्या सचमुच कहीं कोई चुनाव नजर आया है तुम्हें ? बोलो, आया है नजर कहीं ?
teji is offline   Reply With Quote