Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ - भगत सिंह
बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ पर जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ, वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, "जब इच्छा हो तब पूजा कर लिया करो।" यह नास्तिकता है जिसमें इस विश्वास को अपनाने के साहस का अभाव है। दूसरे नेता जिनके मैं संपर्क में आया वे पक्के श्रद्धालु थे। उनका नाम बता दूँ - आदरणीय कामरेड शचींद्रनाथ सान्याल, जोकि आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी अकेली प्रसिद्ध पुस्तक ‘बंदी जीवन’ में पहले पेज से ही ईश्वर की महिमा का जोर-जोर से गान है। उस सुंदर पुस्तक के दूसरे भाग के अंतिम पेज में उन्होंने ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के जो रहस्यात्मक वेदांत के कारण पुष्प बरसाए हैं वे उनके विचारों का अजीबोगरीब हिस्सा हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवाल्यूशनरी’ (क्रांतिकारी) पर्चा बाँटा गया था वह अभियोग पक्ष की कहानी के अनुसार उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। अब इस प्रकार के गुप्त कार्यों में कोई प्रमुख नेता अनिवार्यत: अपने विचारों को ही रखता है, जो उसे स्वयं बहुत प्रिय होते हैं और अन्य कार्यकर्ताओं को उनसे सहमत होना होता है। उन मतभेदों के बावजूद जो उनके हो सकते हैं। उस पर्चे में पूरा एक पैराग्राफ उस सर्वशक्तिमान तथा उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा से भरा पड़ा था। यह सब रहस्यवाद है। मैं जो कहना चाहता था वह यह है कि ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के प्रसिद्ध सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन प्रार्थना में गुजारे थे। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद, राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषद् एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सबमें सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, "दर्शनशास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है।" वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परंतु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
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