Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
हे रामजी! एक काल में ब्रह्माजी ऊर्ध्वमुख से सामवेद को गायन करते थे और सदाशिव का मान न किया तब सदाशिव ने अपने नख से ब्रह्मा का पाँचवाँ शीश काट डाला परन्तु ब्रह्माजी के मन में कुछ क्रोध न फुरा | उन्होंने विचारा कि मैं चिदाकाश हूँ सो अब भी चिदाकाश हूँ मेरा तो कुछ गया नहीं, शिर से मेरा क्या प्रयोजन है? न कुछ हानि है और न कुछ लाभ है | हे रामजी! इस प्रकार सर्व विश्व रचनेवाले ब्रह्मा का शिर कटा, जो वे फिर भी शिर लगा लेते तो समर्थ थे परन्तु उनको लगाने का कुछ प्रयोजन न था और न लगाने में कुछ हानि भी न थी | उनका भी निश्चय सदा आत्मपद में हैं इस कारण उन्हें कुछ क्षोभ न हुआ | हे रामजी! काम के सदृश और कोई विकार नहीं है | जो सदाशिव पार्वती को बायें अंग में धारते हैं और कामदेव के पाँच बाण चलने से सर्वविश्व मोहित होता है उस काम को सदाशिव ने भस्म कर डाला तो क्या स्त्री के त्यागने को वे समर्थ नहीं हैं परन्तु उनको रागद्वेष कुछ नहीं इस कारण त्याग नहीं करते | त्यागने से कुछ अर्थ की सिद्धि नहीं होती और रखने से कुछ अनर्थ नहीं होता-जो कुछ प्रवाहपतित कार्य होता है उसको करते हैं खेद नहीं मानते इससे वे जीवन्मुक्त हैं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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