Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
अज्ञान काल में तो इसका आदि अन्त प्रमाण कुछ नहीं भासता और बोध में इसका अत्यन्ता भाव दीखता है | चित्तसत्ता की जो अनन्तता पूछो तो वह तो अद्वैत चिन्मात्र आत्म समुद्र है और उसमें सूक्ष्मभाव अहमस्मि जो संवित् फुरती है उसका नाम चित्त है | उस चित्त में आगे जगत् होता है | शुद्ध चिन्मात्र में संवेदन चित्त फुरता है उसमें जगत् है, वही चिद्सत्ता देवता, असुर और जंगमरूप हो भासती है और नाग,पिशाच, कीटादिक स्थावर-जंगमरूप हो भासती है | वास्तव में चैतन्यसत्ता ही है उससे भिन्न कुछ नहीं और सब चिदाकासरूप है फुरने से नाना प्रकार है | हे रामजी! परम शुद्ध चिद्अणु से मिलकर चित्त अनेक ब्रह्माण्ड धारता है और उस सूक्ष्म अणु में अनन्त ब्रह्माण्ड फुरते हैं परन्तु उससे भिन्न नहीं |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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