Re: जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन
जैसे तरंग जलरूप है तैसे ही विश्व आत्मस्वरूप है चित्त जो फुरता है उसके अनुभव करनेवाली चैतन्य सत्ता है सो ही ब्रह्म है और तुम्हारा स्वरूप भी वही हैं, इससे अहं त्वं आदिक जगत् सब ब्रह्मरूप है तुम संशय त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो | अगे तुमसे जो द्वैत अद्वैत कहा है वह सब उपदेशमात्र है एकचित्त की वृत्ति को स्थित करके देखो सब ब्रह्म है भिन्न कुछ नहीं तो निषेध किसका कीजिये? हे रामजी! चित्त की दो वृत्ति ज्ञानवान् कहते हैं-एक मोक्षरूप है और दूसरी बन्धरूप है जो वृत्ति स्वरूप की ओर फुरती है सो मोक्षरूप और जो दृश्य की ओर फुरती है सो बन्ध रूप है | जो तुमको शुद्ध भासती हो वही करो | जो दृष्टा है सो दृश्य नहीं होता और जो दृश्य है वह दृष्टा नहीं होता पर आत्मा तो अद्वैत है इससे दृष्टा में दृश्य पदार्थ कोई नहीं | तुम क्यों दृश्य की ओर फुरते हो और अनहोती दृश्य को ग्रहण करते हो? दृष्टा भी तुम्हारा नाम दृश्य से होता है |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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