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Originally Posted by jai_bhardwaj
अलैक जी नमस्कार।
मित्र, क्या ये आंकड़े रूपये के निरंतर अवमूल्यन के कारण इतने अस्थिर हुए हैं?
विश्व में किसी धातु के उत्पादन में हम चौथे स्थान पर हैं। हाँ, यह सांख्यिकीय खेल हो सकता है किन्तु मौलिक स्थिति इससे बहुत अधिक दूर भी नहीं होनी चाहिए। घटती निर्यात-राशि का संपर्क तो मुद्रा के अवमूल्यन से जुड़ा हुआ भी हो सकता है और निर्यात की मात्रा में कमी आने से भी। निर्यात में कम मात्रा का कारण घरेलू खपत का बढना भी हो सकता और मूल उत्पादन में कमी होना भी संभव है। घरेलू खपत बढ़ने का तात्पर्य घरेलू विकास से हो सकता है। यह हमारी सुदृढ़ता का प्रतीक है।
वैश्विक मंदी के दौर को भी नहीं भुलाना चाहिए। यह वही दौर था जब विश्व के बहुत से देशों के आर्थिक प्रबंधन का ढांचा ही चरमरा गया था किन्तु उस दौर में भी भारत कहीं न कहीं अटल और स्थिर रहते हुए अपने मौद्रिक प्रबंधन का लोहा मनवाया था। मुझे लगता है कि यह आंकड़े बाजी भी कई बार आवश्यक होती है। इति ।
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प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद, जय भाई। महज मुद्रा का अवमूल्यन इतने बड़े अंतर का कारण नहीं हो सकता। 6029.82 मिलियन अमेरिकन डॉलर और 1103.84 में बहुत बड़ा अंतर है और वह भी महज चार वर्ष में। मुद्रा का इतना भी अवमूल्यन नहीं हुआ कि आंकड़े हमें इस तरह मुंह चिढ़ाएं। जहां तक उत्पादन का प्रश्न है यह 2007 में 53.5, 2008 में 57.8, 2009 में 62.8, 2010 में 68.3 और 2011 में 72.2 मिलियन टन रहा है यानी लगातार बढ़ा है। जहां तक घरेलू खपत का सवाल है, वह गत पांच वर्ष के दौरान सिर्फ 25 फीसदी बढ़ी है, और हमारा निर्यात तकरीबन 75 प्रतिशत नीचे आ गया है। ज़ाहिर है, भारत के इस बाज़ार पर चीन कब्जा कर चुका है और हम चौथे स्थान पर खिसक कर भी चैन की बंशी ही नहीं बजा रहे हैं, उस पर उल्लास की धुनें भी निकाल रहे हैं। जहां तक मौद्रिक प्रबंधन की बात है, मेरा मानना है कि इसमें सरकार की कोई बड़ी बाजीगरी नहीं थी, बल्कि यह इस देश के नागरिकों की संतोषी प्रवृत्ति का कमाल था। धन्यवाद।