Re: भारतीय स्त्री की व्यथा
गताँक से आगे
हाँ यह कहानी प्रारम्भिक सभ्यता की कहानी है जिसके दौरान का एक सिरा आजतक उस औरत को छू रहा है जिसने सदियोँ के झँझावात झेले हैँ , पुरुषोँ की मार खायी है , आतंक देखा , क्रोध सहा , उस पशु के सम्मुख पशुवत हो गयी - वह बेदम हो गयी परन्तु उसका दम न निकला ।
यह कहानी है टूटी इन्सानियत की अटूट कहानी ।
वह आरम्भ से अन्त तक शासित - भिन्न भिन्न लोगोँ से - पर सबके सब नर । बाबुल की तंग गलियोँ से निकल कर पति से शासित और अन्त मेँ पुत्रोँ से जिन्हेँ उसने जन्म दिया था , नियन्त्रित हुई । प्रत्येक अवस्था मेँ उसे चाहिए , नर का नाम - अपने परिचय के लिए ।उसका अपना कोई अस्तित्व नहीँ , परिचय नहीँ और न ही कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व । वह पुरुष की परछाई मात्र समझी जाती । उसका दर्पण पुरुष था जिसमेँ झाँक वह स्वयँ को देखा करती ।
उसका जनक उसे घर ( ? ) की चारदीवारी मेँ कैद रखता , उसे असूर्यपश्या बनाकर । आज के आधुनिक युग के सन्दर्भ मेँ भी मुस्लिम जगत एवँ ग्रामीण अँचल की स्त्रियोँ की कमोबेश यही स्थिति उनकी तथाकथित समानता पर प्रश्नचिन्ह लगाये समाज को आईना दिखा रही है । उसका जनक उसके सत् की रक्षा सजग व सशँकित रहकर करता रहता मानो वह कोई वस्तु है और अगर उसकी सील टूट गयी तो उसका कोरापन खो जायेगा फिर वह समाजरूपी बाजार मेँ चलाये जाने के काबिल नहीँ बचेगी जबकि उसके सहोदर भ्राता बड़े खुशकिस्मत रहे जिनके साथ ऐसे किसी कोरेपन की सील नहीँ लगी थी ।
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