मोहनदास करमचन्द गांधी, जिन्हें सत्य व अहिंसा का पालन करने के लिए महात्मा की उपाधि से अलंकरित किया गया, आधुनिक विश्व के विख्यात नेता रहे हैं । अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए उन्होंने २०वीं सदी के प्रथम भाग में दक्षिण अफ्रीका व भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता आंदोलन चलाया । गरीबों व दलितों के उत्थान, स्वदेश स्वाभिमान तथा सर्वधर्म एकता के पुरजोर समर्थक रहे गांधी जी ने सामाजिक क्षेत्र में भी एक क्रांति को जन्म दिया ।
महात्मा गांधी को द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत तीन बार नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए नामित किया गया, परन्तु विश्व राजनीति के कारण वह उससे वंचित रह गये । इंग्लैंड से स्वतन्त्रता के पश्चात् , आधुनिक भारत में उन्हें मरणोपरांत 'राष्ट्रपिता' की उपाधि से सम्मानित किया गया । भारतीय मुद्रा पर आज भी उनकी ही छाप चलती है ।
महात्मा गांधी के बचपन में पड़ी दृढ़ नींव से ही वे सत्यवादी, समदृष्टा, परपीड़ा आभासक व स्वाभिमानप्रिय व्यक्तित्व के धनी बन सके थे । नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'महात्मा गांधी- भाग १' जिसके लेखक श्री प्यारे लाल हैं तथा जिस��ी भूमिका भारतीय राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखी है, में महात्मा गांधी के बचपन पर लिखा गया है कि-
"गांधी जी की माताजी दंत्राणा गांव के निजानन्द सम्प्रदाय (प्रणामी) परिवार से थीं । यदि हमें गांधी जी को समझना है, तो आवश्यक रूप से गांधी जी की माताजी के धार्मिक विचारों को समझना होगा । (प्रोफेसर स्टीफन, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पत्र से उद्धृत)
(कैम्ब्रिज, यू.एस.ए. दिसम्बर ३१, १९६५) मोहनदास के बचपनकाल के समय पोरबन्दर में उनके घर के पास श्री प्राणनाथ जी (प्रणामी) मंदिर था और वह आज भी विद्यमान है । यद्यपि उसका स्वरूप काफी कुछ बदला हुआ प्रतीत होता है । मेरी शादी के पश्चात् मेरी माताजी मुझे उस मंदिर में भी ले गयीं । यह अपने प्रकार का अकेला ही मंदिर पोरबन्दर में था ।"
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