Re: समाज का गिरता हुआ स्तर-जिम्मेदार कौन ?
अनिल जी नमस्कार।
बन्धु, यह ज्वलंत समस्या ना तो एक दिन में जन्मी है और ना ही एक दिन में समाप्त होगी। इस अवस्था तक आते आते ऐसी अव्यवस्थाओं की जड़ें समाज में बहुत गहरे धंस चुकी होती हैं। भारत को दासता की जंजीरों से मुक्त होने में 1857 से 1947 तक का समय लग गया था। रोम की सभ्यता एक दिन में नहीं तैयार हुयी थी। किसी भी अव्यवस्था अथवा व्यवस्था के लिए प्रथम प्रयास के साथ उस प्रयास पर लगातार चिंतन और नियमित कार्यवाहीकी आवश्यकता होती है। यह हमें बहुत अच्छे से आ गया है कि हम किसी भी (सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक अथवा व्यवहारिक) समस्या के आने पर तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं और (व्यक्तिगत अथवा बाह्य) समाज से अपेक्षा रखते हैं कि इसका निदान अविलम्ब हो जाए। तार्किक एवं व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं है। तब हमें हताशा होती है और हम अवसादग्रस्त हो जाते हैं।
बन्धु, जहाँ तक सामाजिक विचारों में गिरावट की बात है तो इस पर मेरा विचार बहुत स्पष्ट है कि इसकी जिम्मेदारी हमें स्वयं को ही लेनी पड़ेगी। सरकार और समाज हमारे द्वारा ही निर्मित हुई है और हम इनकी प्रथम इकाई के रूप में हैं। शिक्षा व्यवस्था और चलचित्र जगत भी इसके लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार प्रतीत होता होगा किन्तु परोक्ष रूप से हम अपने मन के अनुरूप अध्ययन करते हैं और जो हम देखना चाहते हैं वही फिल्मकार हमें दिखा देते हैं। पारिवारिक चलचित्रों के बजाय हिंसात्मक और द्विअर्थी सम्बादों से भरपूर चलचित्र - घरों पर दर्शकों की अधिक लम्बी कतार दिख जाती है। हम अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम के विद्यालयों में शिक्षित करते हुए गर्वोन्मत्त होते रहते हैं और बाद में उस पर सनातन - सांस्कारिक - संतान जैसे गुणों से हीन होने का दोष भी मढ़ देते हैं।कितने लोग हैं जो बच्चों को आचार्य पद्धति से जुड़े विद्यालयों में शिक्षा के लिए भेजते हैं? और आखिर क्यों नहीं भेजते हैं? हमारे अन्दर नैतिक शिक्षा का अभाव आखिर क्यों है? इसी कड़ी में मीडिया, नेता अथवा सिस्टम भी दोषी नहीं हैं क्योंकि इन सभी के लिए कहीं न कहीं हम स्वयं ही दोषी हैं।
सबसे पहले हमें स्वयं को ही परिवर्तित करना होगा। इसके बाद परिवार को .. फिर गाँव/मोहल्ले को .... फिर शहर को ... तब जिले को ... बाद में प्रदेश और अंत में देश को। क्या यह सब एक दिन अथवा कुछ साल का कार्य है ? यह परिवर्तन कई दशकों में आ सकता है वह भी तब जब इस के लिए समाज के सभी वर्गों, समुदायों, धर्मों के व्यक्तियों के सम्यक एवं लगातार सार्थक प्रयास चलते रहें। आज हम इस घटना पर बहुत कुछ घटित होते हुए देख रहे हैं। अपनी आदत के अनुसार क्या हम इसको भी जल्द ही भूल नहीं जायेंगे? बन्धु, हम सभी वर्तमान के साथ जीना जानते हैं। और हमारा वर्तमान कुछ दिनों का ही होता है।
हमारे नैतिक पतन के जो मुख्य कारण मुझे समझ में आ रहे हैं उनमे :
1. हमारी मानसिक दृढ़ता में कमी,
2. आत्मसंतुष्टि में कमी,
3. विज्ञान द्वारा प्रमाणित जनेऊ, खडाऊँ और पारंपरिक संस्कारों का त्याग,
4. आर्थिक प्रतिद्वंदिता की बढोत्तरी,
5. संयुक्त - पारिवार की विचारधारा का समापन,
6. एकल - परिवार की जीवनशैली में अधिक उन्मुक्त विचारधारा की प्रबलता
आदि प्रमुख हैं।
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