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Originally Posted by jai_bhardwaj
हार्दिक आभार बन्धु .......
बिना परखे बिना जाने, कोई अपना नहीं होता
जो चेहरों को समेटे ना, वो दर्पण तो नहीं होता
मेरे बाजू खुले रहते, निम्न को भी उच्च को भी
बिना बूँदों के मिलने से, सागर 'जय' नहीं होता
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सुंदर और आश्चर्यजनक !
भले ही सहज रूप से आपने इसे रच दिया हो पर सच कहूँ तो ऐसी गुणवता के साथ ऐसी कविता लिख देना कोई आसान बात नहीं ।