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Originally Posted by kumar anil
सीधी सरल मगर मर्मस्पर्शी रचना जिसे पढ़कर भावविभोर हो गया हूँ । एक अहसास ऐसा जागा कि बस इस अनमोल रचना के माध्यम से उसमेँ डूबा ही रहूँ । दिल के सारे तार झँकृत हो गये और मेरा स्व न जाने कहाँ विलीन हो गया , गर याद रहा तो सिर्फ प्रेम की यह अद्भुत अभिव्यक्ति और उसकी अमर गाथा ।
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इसे लिखने के बाद मैं खुद भी कभी इस पर कुछ नहीं लिख पाया !
'मुझे ठण्ड रस नहीं आती...' के बाद के अंतरे डरा देते हैं |
इब्न-ए-इंशा की इक ग़ज़ल की दो लाइन हैं कि ' कूंचे को तेरे छोड़ कर, जोगी ही बन जाएँ मगर! जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी, इंशा तेरा' बस यही हाल होता है |
अमीर खुसरो ने अपनी एक अधूरी नज़्म में कहा था कि 'सर रख तली, जब जाना सखी, पिया की गली' माने कि अपना अभिमान (सर) नीचे रख के प्रेम नगर में घुसो |
इसी बात को एक हिन्दू संत ने कुछ यूँ कहा कि ' जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नाही' मतलब जब अभिमान(मैं) था तब प्रभु नहीं दिखे और जब अभिमान यानी मैं चला गया तो प्रभु दिख गए |
कितना स्पष्ट जीवन दर्शन हैं, दोनों धर्म एक ही बात कह रहे हैं कि अभिमान छोडो तो प्रेम और प्रभु दोनों मिल जाएँ |
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Originally Posted by bhaaiijee
तारों सा चमकते रहना
फूलों सा महकते रहना
मुस्कान रहे अधरों पर
खुशियाँ बरसाते रहना!!
हर बार सफल तुम होगे
विश्वास सदा ये रखना
बाधाएं आती रहती हैं
तुम राह बनाते रहना !!
असफल जो कभी हो जाओ
मन को न हारने देना
होते हैं ग्रहण छोटे ही
बस याद सदा यह रखना!!
हो जाए भूल जो तुमसे
खुद को भी क्षमा कर देना
पर चेहरे की आभा को
तुम मलिन न होने देना!!
यश अपयश, हार सफलता
वरदान भी हैं अभिशाप भी हैं
तुम इनमे खो मत जाना
संयत हो चलते रहना !!
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थोडा देर लगी भाई किन्तु पहचान गया आपको |
अपना तो संघर्ष का विचार ही नहीं रहता हेहेहे, सीधे हथियार डाल कर कह देते हैं
'मत सताओ हमें, हम सताए हुए हैं,
अकेले रहने का गम उठाये हुए हैं,
खिलौना समझ के ना खेलो हमसे,
हम भी उसी खुदा के बनाए हुए हैं'