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Originally Posted by jai_bhardwaj
वो जो खुद पैरवी-ए-एहद-ए-वफ़ा करती थी
मुझसे मिलती थी तो तलकीन-ए-वफ़ा करती थी
उस के दामन में कोई फूल नहीं मेरे लिए
जो मेरी तंगी-ए-दामन का गिला करती थी
आज जो उसको बुलाया तो गुमसुम ही रही
दिल धड़कने की जो आवाज सुना करती थी
आज वो मेरी हर एक बात के मायने पूछे
जो मेरी सोच की तफसीर लिखा करती थी
उसकी दहलीज पे सदियों से खडा हूँ 'ज़ैन"
मुझसे मिलने को लम्हात गिना करती थी
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नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं:
मैं वही हूँ जिसे वरदान फरिश्तों का समझ
तुमने औढ़ा था किसी रेशमी आँचल की तरह
और हंस हंस के प्यार को जिसके तुमने
अपनी आँखों में रचा था कभी काजल की तरह.
याद शायद हो तुम्हें गोद में मेरी छुप कर
तुम ज़मीं क्या, फ़लक तक से नहीं डरती थीं
और माथे पे सजा कर मेरे होंठों के कँवल
खुद को तुम मिस्र की शहजादी कहा करती थी.