Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
चंद अशआर
(शायर: इक़बाल)
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या ग़र्क होने से
कि जिनको डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों में.
मुहब्बत के लिए दिल ढूं ढ कोई टूटने वा ला
ये वो मय है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में.
बु रा समझूं उन्हें ऐसा तो हरगिज़ हो नहीं सकता
कि मैं खुद भी तो हूँ ‘इक़बाल’ अपने नुक्ताचीनों में.
ढूँढता फिरता हूँ अय इक़बाल अपने आपको
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूँ मैं.
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने-अक्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे.
मैं उनकी महफिले-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं.
ए ताइरे-लाहूती, उस रिज़्क से मौत अच्छी
जिस रिज़्क से आती है परवाज़ में कोताही.
ज़िन्दगी इन्सां की है मानिन्दे-मुर्गे-खुशनवां
शाख पर बैठा,कोई दम चहचहाया, उड़ गया.
तू ही नादां चंद कलियों पर कनाअत कर गया
वरना गुलशन में इलाजे- तंगिए- दामां भी था.
सफ़ीनों = नाव / आबगीनों = प्याला / नुक्ताचीनों = आलोचक / पासबाने-अक्ल = बुद्धि रुपी रक्षक / महफिले-इशरत = चमक दमक वाली महफ़िल / ताइरे-लाहूती = आत्माओं के लोक के पक्षी / कनाअत = सब्र / इलाजे- तंगिए- दामां = छोटे दामन का इलाज
*****
Last edited by rajnish manga; 26-01-2013 at 10:03 PM.
|