Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
चंद अशआर
(शायर: अकबर इलाहाबादी)
ख़ुशी बहुत है जहाँ में हमारे घर में न सही
मलूल क्यों रहें दुनिया के इंतज़ाम से हम
गुनाह क्या कि कहें हम भी अस्सलाम अलैक
कि लुत्फ़ उठाते है बुत की राम राम से हम
अगर वो कहते हैं इमली तो हम कहेंगे यही
ज़रूर क्या है करें बहस जा के आम से हम
अब और चाहिए नीटू के वास्ते क्या बात
यही बहुत है मुशर्रफ हुए सलाम से हम
छड़ी उठायी, ख़मोशी से चल दिए ‘अकबर’
सफ़र में रखते नहीं काम टीम टाम से हम.
(मुशर्रफ = स्वीकार करना)
इधर तस्बीह की गर्दिश में पाया शेख़ साहब को
बिरहमन को उधर उलझा हुआ जुन्नार में देखा.
रकीबों ने रपट लि ख वा ई है जा जा के थाने में
कि ‘अकबर’ नाम लेता है खुदा का इस ज़माने में.
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो च र्चा नहीं हो ता .
शे ख़ जी के दो नों बेटे बा हुनर पैदा हुए
एक है ख़ुफ़िया पुलिस में एक फांसी पा गए.
(जुन्नार = जनेऊ)
|