Re: कलियां और कांटे
लेकिन अब जब भी आते हैं, जाने की जल्दी रहती है !
सहमी उनकी आँखें जाने क्या मौन भाव से कहती हैं !
रह-रह होंठों पर जीभ फेर, चुप-चुप उदास से रहते हैं !
पापा संग घर में बैठ अलग, जाने क्या बातें करते हैं !
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अब राहों में जब मिलते हैं, मुंह लेते फेर देख हमको !
रोने-रोने को मन करता, पर हम पी जाते हैं गम को !
लम्बी-पतली गोरी-चिट्टी, दीदी की एक सहेली थी !
जब भी वह घर पर आती थी, बुझवाती एक पहेली थी !
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उसकी मम्मी भी कभी-कभी, उसके संग आती थी घर पर !
चूड़ी-टिकुली-नथिया पहने, पल्लू डाले रहती सर पर !
जब भी आती थी हमें उठा, बांहों में खूब झूलाती थी !
सर को, गालों को, होठों को, वह चूम-चूम दुलराती थी !
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