Re: कलियां और कांटे
कितने ही दिन जब बीत गए, पूछा तब दीदी से हमने !
अब किस कारण वह कम आती, कुछ कहा-सुना है क्या तुमने ?
इतना सुनते ही दीदी की, आँखों से अश्रु लगे झरने !
चुपचाप फेर मुंह पड़ी रही, दांतों से भींच अधर अपने !
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कुछ अच्छा-अच्छा लगता था, पहले जब संध्या होती थी !
रातों में नीलपरी आकर, आँखों में सपने बोती थी !
जब सुबह नींद खुल जाती थी, सूरज के गोले का बढ़ना !
छत पर से देखा करते थे, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना !
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खोंते से बाहर निकल उच्च स्वर में गौरैया गाती थी !
अपने वह बच्चों की खातिर, दाने चुन-चुन कर लाती थी !
सब लोग विहंसते थे पहले, उल्लसित भाव से भरे-भरे !
अब अजब मुर्दनी छाई है, चेहरे लगते हैं मरे-मरे !
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