Re: 'मछलीमार' - कहानी - प्रत्यक्षा
'माँ, तुम आ जाओ।''
मैं पैर सिकोड़े बिस्तर पर चुपचाप पड़ा रहता। माया तंग तंग।
माँ आईं तो माया जैसे जेल से छूटी। फिर मैं और माँ। और तब शुरू हुआ डॉ. सर्राफ के सेशंस।
हफ्ता बीता, दस दिन, फिर पंद्रह दिन। हमारी दिनचर्या सध गई थी। बजरे में लेटे लेटे मैं ठुमरी सुनता
कैसे के मैं आऊँ सखी हे
पिया के नगरिया
झन बोले रे
बोले बोले रे
बोले बोले रे झाँझरवा
कैसे जाऊँ मैं अपने पी के नगरिया। इस नश्वर संसार की झाँझर मेरे पैर का साँकल बन रही थी। अब भी मेरी आँखें भर आतीं। हमने पेप्सी और कोला ख़त्म कर दिया था और अब आर्सी और पीटर स्कॉट पर ग्रजुयेट कर चले थे। हल्के से नशे में हम हर वक्त टुन्न रहते। सबसे बड़ी बात ये हुई थी कि अब मैं सोने लगा था। एक भरपूर नींद। सुबह उठता तो वही ख़याल फिर हावी हो जाता। पर बजरे पर मेरी आत्मा शांत हो जाती। मेरा मन कभी बचपन की गर्म दोपहरियों में भाग जाता। जेब में कंचों की भरमार। उँगली से बनाई मिट्टी की गोल गुपची में कंचे का निशाने से गिर जाने का आह्लाद मुस्कुराहट ला देता। मन बचपन की ओर खूब भागता। पुरानी बिसरी बातें खूब याद आतीं। डीजे चुपचाप लेटा किताबें पढ़ता रहता, अध्यात्म की किताबें, लाइफ़ ऑफ रमन महर्षि, कोल्हो की आल्केमिस्ट, ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी। मैं मछली मारता, सचमुच मछली मारता। उन छोटी-छोटी मछलियों को बाल्टी में डाल कर खुश होता। साँझ ढले फिर वापस उन्हें पोखर में डाल घर चला आता। एक तंद्रा छा रही थी।
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