शकील बदायूंनी की पुण्यतिथि पर
शायद आगाज हुआ है फिर किसी अफसाने का ...
अपने पुरकशिश नग्मों के जरिये रूपहले पर्दे पर रूमानियत को नयी शक्ल देने वाले मशहूर शायर शकील बदायूंनी बेशक एक ऐसे अदीब थे जिन्होंने देखने-सुनने वालों को मुहब्बत के नये पहलुओं और कशिश से रूबरू कराया और अपनी अमिट छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में तीन अगस्त 1916 को जन्में शकील ने कालजयी फिल्म मुगल-ए-आजम, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलाम, मदर इंडिया, घराना, गंगा-जमुना और मेरे महबूब समेत अनेक फिल्मों में यादगार गीत लिखकर सुनने वालों के दिलों में आशियाना बनाया। शकील ने उर्दू शायरी में अपने रास्ते खुद चुने और ऐसे फलक पर पहुंचे जिसे देखकर आज की शायर पीढी शायद रश्क करती होगी। शकील बदायूंनी से शायरी की बुनियादी बारीकियां सीखने वाले प्रख्यात शायर पूर्व राज्यसभा सांसद बेकल उत्साही ने इस शायर के अदबी पहलू का जिक्र करते हुए बताया कि इश्क को खास अहमियत देने वाले शकील की गजलों में गजब की कशिश थी। उन्होंने कहा कि शकील ने जितने फिल्मी गीत लिखे वे निहायत अदबी थे। उनके हर लफ्ज में गहरे मायने छुपे होते थे और उन्होंने उर्दू के अल्फाज, अदाओं और कशिश को इस शिद्दत से आम अवाम तक पहुंचाया कि वह उनका मतलब समझने लगी। वह बेशक उर्दू के ऐसे दूत थे जिन्होंने इस जबान की चाश्नी को आम लोगों तक पहुंचाया। बेकल ने बताया कि वैसे तो शकील ने अनेक फिल्मी संगीतकारों के साथ काम किया लेकिन नौशाद उन्हें सबसे ज्यादा अहमियत देते थे। इसका नतीजा मुगल-ए-आजम समेत अनेक फिल्मों के गीतों के रूप में सामने आया जो आज भारतीय सिनेमा का बेशकीमत सरमाया हैं। बेकल उत्साही के मुताबिक उर्दू शायरी और उसकी विधाओं से जुड़ी तहजीब को संजोने में भी शकील का अहम योगदान रहा। इस शायर ने कभी मुशायरे पढने के लिये रकम नहीं मांगी। बेशक, शकील ने मुशायरे के मंचों को बुलंदी पर पहुंचाया। उन्होंने कहा कि वह शकील से बहुत प्रभावित रहे हैं और जब उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में कदम रखा था तब शकील बुलंदी पर थे। ऐसे में उन्हें उनसे उर्दू मौसीकी के बारे में काफी कुछ सीखने को मिला। बचपन से ही शायरी की तरफ झुकाव रखने वाले शकील ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से तालीम हासिल की और वहां शुरुआत से ही मुशायरों में हिस्सा लेकर मकबूलियत बटोरनी शुरू कर दी। वर्ष 1944 में शकील मुम्बई चले आये और वर्ष 1947 में बनी फिल्म ‘दर्द’ के लिये गीत लिखने के साथ अपने सुनहरे सफर की शुरुआत की। संगीतकार नौशाद के साथ शकील ने बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, दुलारी, शबाब और गंगा-जमुना जैसी फिल्मों में यादगार नग्मे लिखे। इसके अलावा उन्होंने संगीतकार रवि और हेमंत कुमार के साथ भी काम किया। फिल्म ‘घराना’ के गीत ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं’ के लिये शकील को सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। उसके बाद वर्ष 1960 में बनी हेमंत कुमार की ‘चौदहवीं का चांद’ फिल्म के शीर्षक गीत के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार के एक और फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया। हिन्दुस्तानी सिने जगत में अपने गीतों की गूंज छोड़कर शकील ने 20 अप्रैल 1970 को दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने नग्मों की शक्ल में वह हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे।