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Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~
बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।
चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कंपकंपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर वीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुंघा दिया और होश में लाकर कहा, ‘‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊं तब आपको ले चलूं।’’ यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, ‘‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे ? क्या इसी का नाम मुरव्वत है ? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवांमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूंगी ?’’ कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बंध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, ‘‘बस, इसी को नादानी कहते हैं ! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ !’’
यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ वीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।
अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुंचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो ?’’
नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।
क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है ?
नाजिमः खुलासा बस यही है कि वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुंच गया और इस समय बाग में हंसी के कहकहे उड़ रहे हैं।
यह सुनते ही क्रूरसिंह की आंखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुंचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, ‘‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।
क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊंगा ?’’
जयसिंह : (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह ! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े ?
क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।
जयसिंह : (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है ?
क्रूरसिंहः वीरेन्द्रसिंह !
जयसिंह : उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है ! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है ? वीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं ?
क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में !
* बालादवी-टोह लेने के लिए गश्त करना।
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