Re: इधर-उधर से
कॉलेज का अंतिम दिन
(16/5/1973 की डायरी का एक अंश)
कल फाईनल एग्जाम के बाद प्रेक्टिकल भी समाप्त हो गए. लगा कि सिर से एक बोझ उतर गया है. शाम को जब त्यागी के कमरे में ब्रिज, सलाहुद्दीन, और मैं बैठे हुए थे तो मन कुछ ऐसी घाटियों में भटक गया पीछे छूटती जाने वाली राहों की याद से ही मैं आद्र हो उठा. प्रेक्टिकल्स की समाप्ति पर ऐसा न महसूस न हुआ था. आज यह सोच कर कि अब उन सभी साथियों से बिछड़ना होगा जिनके साथ मैंने विगत दो वर्ष गुज़ारे. आज लगा कि ये दो वर्ष जैसे दो दिनों में ही व्यतीत हो गए हों. कहने को कह सकता हूँ कि क्या पाया है मैंने उनसे? लेकिन सच्चाई यह है कि जो कुछ मैंने उनसे पाया है उसे सहेज पाने तक की ताकत मुझ में नहीं है. इन दो वर्षों में स्नेह, मिलन-बिछुडन, घुटन, कटूक्तियां, मुक्त-हास्य, मज़ाक आदि के इतने विविध रूप देखे हैं और इन सब का मुझ पर इतना भारी प्रभाव पड़ा है कि इन सब से अलग होकर स्वयं को देख पाना लगभग असंभव सा लगता है.
लेकिन मेरे पास क्या प्रमाण है? प्रमाण है वह टीस, वह पीड़ा जो कल रात अकस्मात् मेरे नेत्रों को भिगो गई. और मैं इस मंज़र पर खड़ा खड़ा फिर से न जुड़ने वाले, पीछे छूट जाने वाले कारवाँ के बारे में सोचने लगा और अपने हमराहियों की परछइयां पकड़ने की नाकाम कोशिश करता रहा. मैं नहीं जानता कि वे सब भी उसी उद्वेलित मन:स्थिति से गुज़र रहे होंगे अथवा नहीं. देर रात तक जागता रहा. एक गीत की पंक्तियाँ बार बार याद आती रहीं –
खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले
तुम्हें छोड़ कर हम चले, हमें छोड़ कर तुम चले,
खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले
आज मुझे वह दिन भी याद आया जब मैं डी.ए.वी.कॉलेज देहरादून में पढ़ने के लिए आया था. उस दिन मुझे घर की और आत्मीयों की बहुत याद आई थी. उस दिन नए माहौल की घबराहट निम्नलिखित गीत के माध्यम से स्वतः व्यक्त हो उठी थी –
घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश मैं,
खुशी की तलाश में,
ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए ...
******
|