Re: गांधीवादः डॉ. राममनोहर लोहिया
मनुष्यों में जब से सन्त और ऋषि होने लगे, तभी से उनका ध्यान सम्पनि के सवाल की ओर जाता रहा है। सम्पनि अप्रिय या बुरे मनोविकारों का स्रोत थी, जो मन को विछत करती थी। अतः इसका इलाज था कि सम्पनि के प्रति मोह न रहे। अलग-अलग रूपों में और विभि़न्न सीमाओं तक सभी देशों में अपरिग्रह का दर्शन विकसित हुआ। एक भावनात्मक अनुशासन के अलावा इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। यह अनुशासन अपने आप में शक्तिहीन था, लेकिन कुछ अन्य बातों के मिल जाने पर इसमें बडी संभावनायें थम्। अपरिग्रह का दर्शन जहां सबसे अधिक विकसित हुआ, उस देश में ही सबसे अधिक मोह बढा, जीवन और सम्पनि के ऐसे रूपों का भी मोह बढा जो स्वीकार करने के लायक नहीं थे। पिछली दो शताब्दियों में यूरोप-अमरीका ने सम्पनि के सवाल को एक अन्य कोण से देखा है -एक संस्था के रूप में। खासतौर से मार्क्सवाद के अनुसार, सम्पनि से जो बुराई पैदा होती है, उसे केवल एक संस्था के रूप में सम्पनि का नाश करने पर ही मिटाया जा सकता है : निजी सम्पनि खतम हो, सामूहिक सम्पनि बने।
अभी भी इसके बहुतेरे संकेत हैं कि संस्था के स्तर पर सम्पनि के सवाल का सामना करना शायद उतना ही नाकाफी सिद्ध हो, जैसा पहले भावनात्मक स्तर पर हुआ । फिर भी, संस्थात्मक कारवाई के कुछ तो नतीजे निकलते हैं, जबकि भावनात्मक स्तर पर कोई भी नतीजा नहीं निकलता। यही कारण है कि सरकारी मार्क्सवाद किसी हद तक वंतिकारी होता है, जबकि सरकारी गांधीवाद भावनात्मक रूप में बडबोला और भौतिक रूप में हवाई साबित हुआ है।
एक संस्था के रूप में उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत को खत्म कर देने के बाद भी विकास और सम्प़ता की समस्या रह जाती है। यहम् पर सामूहिक और निजी सम्पनि की अलग-अलग भूमिकायें सहायक हो सकती हैं। सामूहिक सम्पनि मुख्य रूप से उत्पादन के लिए होती है, और इसलिए वह बढे। निजी सम्पनि उपभोग के लिए होती है, और इसलिए उस पर रोक लगे। सामूहिक सम्पनि का लगभग असीमित विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर एक अधिकतम सीमा को मिलाने पर ऐसी स्थिति उत्प़ हो सकती है जिसमें सम्प़ता भी हो और आत्मसंतोष भी, और जिसमें अपूर्ण इच्छाओं की कसक के लिए गुंजाइश बहुत कम रह जाये। उत्पादन की सम्पनि का विस्तार और उपभोग की सम्पनि पर रोक, यह बात तार्किक दृष्टि से असंगत और कुछ बेमतलब लगती है। इसकी संगति मनुष्य की मानसिकता में है। इस मेल के द्वारा ही वह सम्बन्ध बनता है जिसमें दुनिया के सभी लोगों की कुल संभावनायें ध्यान में रहती हैं, और जिसमें व्यक्ति जितना कर सकता है उससे कम वस्तुओं का उपभोग करता है। इस संदर्भ में उपभोग की सम्पनि की अधिकतम सीमा कुछ लचीली हो जाती है। सामूहिक विस्तार और निजी सीमा का ऐसा दिमाग बनाना असंभव नहीं होना चाहिये। संस्था के रूप में सम्पनि का विनाश एक संस्थागत ढांचा पंदान करेगा। भावनात्मक स्तर पर सम्पनि के मोह के विनाश से इस ढांचे के फिर कभी टूट जाने का खतरा नहीं रहेगा। अगर गांधीवाद या उसके सुफल को आप जो भी नाम दें, निष्फल बातों को दोहराने तक ही सीमित नहीं हो जाता, चाहे उपनिषदों की सम्पनि के अपरिगंह की बात हो, या मार्क्स की निजी सम्पनि की संस्था का नाश करने की बात हो बल्कि दोनों को मिलाने की बात और ऐसा संस्थात्मक ढांचा बनाने की कोशिश करता है जिसमें मनुष्य आशा के साथ अच्छा बनने की चेष्टा कर सके, तो वह सरकारी सिद्धांत के रूप में भी स्वीकार करने लायक हो सकता है। कोई यह समझने की गलती न करे कि भावना के स्तर पर सम्पनि-मोह के नाश से, संस्था के रूप में सम्पनि के नाश की जरूरत जरा भी कम होती है। यहां केवल इस बात पर आग्रह किया गया है कि संस्था के रूप में सम्पनि के विनाश की जरूरत जरा भी कम नहीं होती।
अच्छे काम करने के सरकारी सिद्धांत के रूप में गांधीवाद की कमियों के बारे में चाहे जो भी कहा जाये, बुराई का विरोध करने के जन सिद्धांत के रूप में यह अनुपम था। व्यक्ति की आदत और सामूहिक संकल्प, दोनों ही रूपों में सिविल नाफरमानी बुद्धि को ताकत से जोडती है। ताकतवर बुद्धि है, जबकि अन्य सभी तरीके या तो निर्बल बुद्धि के होते हैं या अबुद्धिपूर्ण ताकते के। ऐसी सिविल नाफरमानी मनुष्य जाति को गांधीजी की प्रत्यक्ष देन है।
लेकिन गांधीजी और उनके सिद्धांत ने जिस सरकार को बनाने में योग दिया, उसने गांधीजी की सीख के इस सबसे अधिक वंतिकारी मर्म को नष्ट करने की पूरी कोशिश की है। इतिहास में कभी किसी संतान ने इस तरह अपनी मां की कोख में लात नहीं मारी। कभी कोई सिद्धांत विपक्ष में जैसा था, सरकार में आने पर इस तरह बिलकुल उसका उल्टा नहीं बना। लेकिन यह स्वाभाविक है कि सरकारी गांधीवाद विपक्षी गांधीवाद से टकराये, जब तक कि उनके अन्तर्विरोध को दूर करने वाली कोई बेहतर चीज उनके मेल से नहीं बनती। ऐसी संभावना पर विचार करने के पहले एक विचित्र बात की ओर ध्यान देना जरूरी है। गांधीजी के सबसे नजदीकी शिष्यों ने जिस तरह उनका प्रकट तिरस्कार किया, वैसा पहले कभी किसी सिद्धांत या पैगम्बर के साथ नहीं हुआ। जिस घडी उनकी जीत हुई, उसी समय से उनका अपमान भी शुरू हुआ। उनके सिद्धांत के तिरस्कार के अलावा, उनके व्यक्तित्व का मान भी घटा। गांधीजी की बराबरी करने वाले किसी महान व्यक्ति के ऐसे शिष्य नहीं हुए जो किसी अन्य व्यक्ति को अपने गुरु से महान घोषित करें। सवाल यह नहीं है कि बुद्ध वास्तव में गांधीजी से बडे हैं या नहीं। शायद हैं, शायद नहीं हैं। लेकिन गांधीजी के शिष्य जब भी मौका मिले बुद्ध को हिन्दुस्तान का सबसे बडा आदमी घोषित करें, यह अनोखी बात है। ऐसे कोई शिष्य न बुद्ध के थे, न ईसा के, न सुकरात के, यहां तक कि मार्क्स के भी नहीं। यह संभव है कि गांधीजी उनकी बराबरी के नहीं। ऐसी सूरत में बात यहीं खतम हो जाती है ।
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