Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 9
मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर
(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला अपने शहर में)
बुखारा में मुल्ला नसरुद्दीन को न तो अपने रिश्तेदार मिले और न पुराने दोस्त। उसे अपने पिता का मकान भी नहीं मिला।.....मुल्ला नसरुद्दीन कुछ देर तक नीची निगाह किए चुपचाप खड़ा रहा। पूरे बदन को कँपा देने वाली खाँसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा।...मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे रोककर कहा, ‘अस्सलाम वालेकुम बुजुर्गवार, क्या आप बता सकते हैं कि इस जमी़न पर किसका मकान था?’ ‘यहाँ जीनसाज़ शेर मुहम्मद का मकान था।’ बूढ़े ने उत्तर दिया......‘मुल्ला नसरुद्दीन के बुखारा से निकल जाने के लगभग अठारह महीने के बाद बाजा़रों में अफवाह फैली कि वह ग़ैर-क़ानूनी ढंग से चोरी-छिपे फिर बुखारा में लौट आया है और अमीर का मजा़क़ उड़ाने वाले गीत लिख रहा है।....अमीर ने उसके पिता, दोनों भाइयों, चाचा और दूर तक के रिश्तेदारों और दोस्तों की गिरफ्*तारी का हुक्म दे दिया। लेकिन उसका पिता जीनसाज़ शेर मुहम्मद उन यातनाओं को सहन नहीं कर पाया। वह बीमार पड़ गया और कुछ दिनों बाद मर गया।......
.....मुल्ला यह सुनकर रोता है और फिर आगे बढ़ जाता है।)
उसके आगे..
मुल्ला के शहर पहुंचा टैक्स अफसर
तीसरे पहर का सन्नाटा चारों और फैला हुआ था। धूल से भरी सड़क के दोनों और के मकानों की कच्ची दीवारों और बाड़ों से अलसायी-सी गर्मी उठ रही थी। पोंछने से पहले ही पसीना मुल्ला नसरुद्दीन के चेहरे पर फैल जाता था।
बुखारा की चिरपरिचित सड़कों, मस्जिदों की मीनरों और कहवाखानों को उसने बड़े प्यार से पहचाना। पिछले दस वर्षों में बुखारा में रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था। रँगे हुए नाख़ूनवाले हाथों से बुर्क़ा उठाए एक औरत बड़े सजीले ढंग से झुककर गहरे रंग के पानी में पतली-सी सुराही डुबो रही थी।
मुल्ला के सामने सवाल यह था कि खाना कहाँ से और कैसे मिले? उसने पिछले दिन से तीसरे बार पटका अपने पेट पर कसकर, बाँध लिया था। ‘कोई-न-कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा मेरे वफादार गधे।‘ उसने कहा, ‘हम यहीं रुककर कोई उपाय सोचते हैं। सौभाग्य से यहाँ एक कहवाखाना भी है।‘
लगाम ढीली करके उसने गधे को एक खूँटे के आसपास पड़े तिपतिया घास के टुकड़ों को चरने के लिए छोड़ दिया और अपनी खिलअत का दामन सिकोड़कर एक नहर के किनारे बैठ गया।
अपने विचारों में डूबा मुल्ला नसुरुद्दीन सोच रहा था- ‘बुखारा क्यों आया? खाना खरीदने के लिए मुझे आधे तंके का सिक्का भी कहाँ से मिलेगा? क्या मैं भूखा ही रहूँगा? उस कमबख्त़ टैक्स वसूल करने वाले अफसर ने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी। डाकुओं के बारे में मुझसे बात करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’
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