Re: पथ के दावेदार
दूसरे दिन जब नींद टूटी तब भूखे रहने के कारण कमजोरी से उसका शरीर थका हुआ था।
जिस आदमी से भारती की मां ने विवाह किया था वह बड़ा दुराचारी था। उसके साथ इकट्ठे बैठकर ही भारती को भोजन करना पड़ता था। फिर भी किसी बासी या अस्वच्छ वस्तु को उसने कभी अपना खाद्य पदार्थ नहीं बनाया, छुआछूत की भावना उसमें नहीं थी लेकिन जहां-तहां, जिस-तिस के हाथों का भोजन ग्रहण करते हुए उसे घृणा होती थी। मां की मृत्यु के बाद से वह अपने ही हाथ से रसोई बनाकर खाती थी। लेकिन आज रसोई बना पाने की शक्ति उसके शरीर में नहीं थी। इसलिए होटल में रोटी और कुछ तरकारी तैयार कर देने के लिए उसने महाराज के पास सूचना भेज दी।
दासी भोजन की थाली लेकर आई तो भारती ने अपनी थाली और कटोरी लाकर मेज पर रख दी। दासी ने दूर ही से उसकी थाली में रोटी और कटोरी में तरकारी डालकर कहा, “लो भोजन कर लो।”
भारती ने बड़ी नर्मी से कहा, “तुम जाओ, मैं खा लूंगी।”
दासी बोली, “जाती हूं। नौकर तो उनके साथ चला गया था। अकेले सब धोना-मांजना-जो हो, लौटकर बीस रुपए मेरे हाथ में देकर बाबू रोकर बोले, 'दाई, अंत समय में तुमने जो किया, उतना मां की बेटी भी पास रहते हुए नहीं कर सकती थी।' वह रोने लगे तो मैं भी रोने लगी। बहिन जी, आह, कितना कष्ट उठाया। परदेश की भूमि, कोई अपना आदमी पास नहीं। समंदर का रास्ता, तार भेज देने से ही तो बहू-बेटे उड़कर आ नहीं सकते थे। उन लोगों का भी क्या दोष है।”
भारती का हृदय उद्वेग और अज्ञात आशंका से बर्फ-सा हो गया लेकिन मुंह खोलकर वह कुछ भी न पूछ सकी।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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