झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
बांदा बुन्देलखण्ड झांसी १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और बाद के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में देश के अनेक वीरो और वीरांगनाओं ने अपनी कु र्बानी दी है। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का नाम तो स्वर्णक्षरों में अकित है किन्तु बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाये है जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं है। तो बहुत से ऐसे भी वीर और वीरांगनाएं है जो इतिहास कारों की नजर में तो नहीं आ पाये जिससे वे इतिहास के स्वार्णिम पृष्टों में तो दर्ज होने से वंचित रह गये किन्तु उन्हें लोक मान्यता इतनी अधिक मिली कि उनकी शहादत बहुत दिनों तक गुमनाम नहीं रह सकी । ऐसे अनेक वीरो और वीरांगनाओं का स्वतन्त्रता संग्राम में दिया गया योगदान धीरे – धीरे समाज के सामने आ रहा है। और अपने शासक झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के प्राण बचाने के लिए स्वयं वीरांगना बलिदान हो जाने वाली वीरांगना झलकारी बाई ऐसी ही एक अमर शहीद वीरांगना है जिनके योगदान को जानकार लोग बहुत दिन बाद रेखाकित क र पाये है। झलकारी जैसे हजारों बलिदानी अब भी गुमनामी के अधेरे में खोये है जिनकी खोजकर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की भी वृद्धि करने की पहली आवश्यकता है। वीरांगना झलकारी बाई झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में महिला सेना की सेनापति थी जिसकी शक्ल रानी लक्ष्मी बाई से हुबहू मिलती थी। झलकारी के पति पूरनलाल रानी झांसी की सेना में तोपची थे। सन् १८५७ के प्रभम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझ बुझ स्वामिभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था। निर्णायक समय में झलकारी बाई ने हम शक्ल होने का फायदा उठाते हुए स्वयं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गयी थी और असली रानी लक्ष्मी बाई को सकुशल झांसी की सीमा से बाहर निकाल दिया था और रानी झांसी के रूप में अग्रेंजी सेना से लड़ते – लड़ते शहीद हो गयी थी।
वीरांगना झलकारी बाई के इस प्रकार झांसी की रानी के प्राण बचाने अपनी मातृ भाूमि झांसी और राष्ट्र की रक्षा के लिए दिये गये बलिदान को स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भले ही अपनी स्वार्णिम पृष्टों में न समेट सका हो किन्तु झांसी के लोक इतिहासकारो , कवियों , लेखकों , ने वीरांगना झलकारी बाई के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान को श्रृद्धा के साथ स्वीकार किया है। वीरांगना झलकारी बाई का जन्म २२ नवम्बर १८३० ई० को झांसी के समीप भोजला नामक गांव में एक सामान्य कोरी परिवार में हुआ था जिसके पिता का नाम सदोवा था। सामान्य परिवार में पैदा होने के कारण झलकारी बाई को औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर तो नहीं मिला किन्तु वीरता और साहस झलकारी में बचपन से विद्यमान था। थोड़ी बड़ी होने पर झलकारी की शादी झांसी के पूरनलाल से हो गयी जो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में तोपची था। प्रारम्भ में झलकारी बाई विशुद्ध घेरलू महिला थी किन्तु सैनिक पति का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा धीरे – धीरे उसने अपने पति से से सारी सैन्य विद्याएं सीख ली और एक कुशल सैनिक बन गयी। इस बीच झलकारी बाई के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिनमें उसने अपनी वीरता साहस और एक सैनिक की कुशलता का परिचय दिया। इनकी भनक धीरे – धीरे रानी लक्ष्मीबाई को भी मालूम हुई जिसके फलस्वरूप रानी ने उन्हें महिला सेना में शामिल कर लिया और बाद से उसकी वीरता साहस को देखते हुए उसे महिला सेना का सेनापति बना दिया। झांसी के अनेक राजनैतिक घटना क्ररमों के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई का अग्रेंजों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध हुआ उस समय रानी की ही सेना का एक विश्वासघाती दूल्हा जू अग्रेंजी सेना से मिल गया था और झांसी के किले का ओरछा गेट का फाटक खोल दिया जब अग्रेंजी सेना झांसी के किले में कब्जा करने के लिए घुस पड़ी थी। उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अग्रेंजी सेना से घिरता हुआ देख महिला सेना की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी। झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी ही उसी सूझ बुझ और रण कौशल का परिचय देते हुए वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई बन गयी और असली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सकुशल बाहर निकाल दिया और अग्रेंजी सेना से स्वयं संघर्ष करती रही।
बाद में दूल्हा जी के बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अग्रेंजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है। बाद में वह शहीद हो गयी। वीरांगना झलकारी बाई के इस बलिदान को बुन्देलखण्ड तो क्या भारत का स्वतन्त्रता संग्राम कभी भुला नहीं सकता
देखते है अवसर वादी नेताओ को इनकी याद आती है के नहीं
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