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Old 01-07-2013, 02:15 PM   #8
VARSHNEY.009
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Default Re: विज्ञान दर्शन

सदुपयोग मकड़ी के जाले का
इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियाँ जाल बनाने में बड़ी मितव्यता तथा कलात्मक ढंग से करती हैं। इनके बनाए जाल लगभग वृत्ताकार होते हैं। सबसे पहले तो ये एक अकेले परंतु तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी मोटे तथा मज़बूत रेशमी धागे (support or bridge line) की कताई करती हैं। इस धागे का सिरा हवा में तब तक खुला छोड़ दिया जाता है जब तक वह किसी पेड़ की टहनी या किसी अन्य ठोस आधार पर चिपक नहीं जाता। इस आधारभूत धागे को सही ढंग से व्यवस्थित करने के बाद त्रिज्जीय तंतुओं (Radial thread) की कताई की जाती है जिनके द्वारा आधारभूत तंतुओं को जाल के मध्य स्थित संयोजन क्षेत्र (attachment zone) से जोड़ा जाता है। तत्पश्चात इन त्रिज्जीय तंतुओं को न चिपकने वाले तंतुओं द्वारा कुंडलाकार (spiral) ढंग से अस्थाई रूप से जोड़ा जाता है ताकि ये त्रिज्जीय तंतु अपने स्थान पर बने रह सकें। अंत में इन त्रिज्जीय तंतुओं को पतले परंतु चिपचिपे तंतुओं द्वारा पुन: कुंडलाकार रूप में जोड़ कर पुराने अस्थाई कुंडलाकार तंतुओं को हटा लिया जाता है। इन चिपचिपे कुंडलाकार तंतुओं से बना जाल शिकार फँसाने के काम आता है।
बड़ी मकडियाँ प्राय: इस जाल के केन्द्र में इस प्रकार बैठती हैं जिससे उनके प्रत्येक पैर न चिपकने वाले अलग-अलग त्रिज्जीय तंतुओं पर सधे रहें। जब भी शिकार फँस कर छटपटाता है, जाल के तंतुओं में कंपन होने लगता है जिसे मकड़ी त्रिज्जीय तंतुओं पर अपने पैर होने के कारण आसानी से महसूस कर लेती है। फिर तेज़ी से दौड़ कर शिकार को विष दंश से मार डालती है अथवा तेज़ी से उसके चारों ओर रेशमी तंतुओं का जाल बुन कर उसे निष्क्रिय कर देती हैं। छोटे आकार की मकड़ियाँ जाल के किनारे या उसके आस-पास घात लगा कर बैठी रहती हैं। हर प्रजाति के जाल में कुछ न कुछ अपनी विशिष्टता होती ही है। मकड़ियाँ अक्सर पुराने जाल के रेशम को खाती भी रहती हैं। क्योंकि निर्माण के एक दिन के अंदर ही इसमें प्रयुक्त रेशमी तंतुओं का चिपचिपापन हवा तथा धूल के कारण समाप्त होने लगता है। पुराने जाल के रेशम को खा कर उसे पचा लिया जाता है और संभवत: नए तंतु के उत्पादन में कच्चे माल की तरह इसका उपयोग फिर से किया जाता है। मितव्ययता का यह एक नायाब नमूना है।
रेशमी तंतुओं के उत्पादन एवं जाल बुनने की कला में निपुणता के कारण काल्पनिक कहानियों तथा मिथकों में इन्हें आदिकाल से ले कर आज तक स्थान मिलता रहा है। स्पाइडर मैन के नाम से कॉमिक्स, कार्टून्स तथा फिल्मों की लोकप्रियता से भला कौन नहीं परिचित है। एक पुराने ग्रीक मिथक के अनुसार देवी एथेना की कताई एवं बुनाई कला की कोई तुलना नहीं थीं। लेकिन अरैक्ने नामक गँवारू लड़की ने देवी एथेना को चुनौती देने की ठानी और इस प्रतियोगिता में देवी एथेना को हरा भी दिया, जिससे देवी नाराज़ हो गईं। देवी एथेना के गुस्से से डर कर अरैक्ने ने बाद में फाँसी लगा ली। जब देवी एथेना का गुस्सा शांत हुआ तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने अरैक्ने के शरीर को मकड़ी में परिवर्तित कर उसे कताई एवं बुनाई की कला को बनाए रखने का वरदान दे दिया। जंतुओं के आधुनिक वर्गीकरण में भी मकड़ियों को फाइलम आर्थोपोडा के अरैक्निडा वर्ग में ही रखा गया है। अरैक्निडा नाम अरैक्ने से ही प्रेरित है।
मकडियों तथा मकड़ियों के बनाए जाल से भला कौन नहीं परिचित है? तरह-तरह के रेशमी तंतुओं के उत्पादन में दक्ष होती है ये मकड़ियाँ। इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियाँ केवल शिकार फंसाने के लिए ही नहीं करतीं बल्कि अपने बिलों के द्वार को ढकने तथा इनकी भीतरी दीवारों पर नरम स्तर के निर्माण के लिए भी करती हैं। इसके अतिरिक्त अपने अंडों को सुरक्षित रखने के लिए ककून रूपी मजबूत आवरण के निर्माण तथा फँसे शिकार के चारों ओर मज़बूत शिकंजा कसने में भी ये मकड़ियाँ इन तंतुओं का प्रयोग करती हैं। इसका एक ही तंतु इतना मज़बूत होता है कि इसका उपयोग ये मकड़ियाँ रस्सी के रूप में करती हैं जिसके बल ये सर्कस के निपुण कलाकार की तरह किसी भी ऊँचाई से पलक झपकते ही बड़ी सरलता पूर्वक नीचे उतर सकती हैं। कुछ छोटी मकड़ियाँ इन तंतुओं की सहायता से गुब्बारे जैसी संरचना का निर्माण कर उनकी सहायता से हवा में बह सकती हैं। दर असल ये मकडियाँ स्वाभाविक रूप से कुशल बुनकर एवं दक्ष शिकारी हैं और अपने इस रूप में प्रकृति की कृतित्व क्षमता का अदभुत उदाहरण हैं। मकड़ियाँ हमारे पर्यावरण में कीट-पतंगों की संख्या को नियंत्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं, साथ ही इनके द्वारा उत्पादित बारीक रेशमी तंतुओं का उपयोग ऑप्टिकल उपकरणों के क्रॉस हेयर्स के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त मकड़ियों का उपयोग कुछ औषधियों के परीक्षण में भी किया जाता है, कारण- इन औषधियों का प्रभाव इनके द्वारा उत्पादित रेशमी तंतुओं तथा उनसे निर्मित जाल की गुणवत्ता पर पड़ता है। इनके अतिरिक्त रेशमी तंतुओं के और भी छोटे-मोटे उपयोग तो हैं ही, लेकिन हमारे वैज्ञानिक बंधु इतने पर ही भला कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? वे तो इन तंतुओं की बरीकी एवं मज़बूती पर मुग्ध हैं और इस फेर में पड़े हुए हैं कि किस प्रकार इनका उत्पादन व्यापारिक स्तर पर किया जा सके तथा इनका उपयोग नाना प्रकार के ऐसे कार्यों में किया जा सके जिससे अर्थव्यवस्था पर बोझ भी कम पड़े एवं प्रकृति में प्रदूषण की मात्रा भी कम हो जाए। इस संदर्भ में किए जा रहे अनुसंधानों तथा उनसे जुड़ी उपयोगिता संबंधी संभावनाओं की चर्चा के पहले आइए इन मकड़ियों के बारे में ज़रा ठीक से जान लें। सिवाय अंटार्कटिका के यत्र-तत्र-सर्वत्र यानि इस धरती पर जीव-जंतुओं के जीवन यापन के लिए उपयुक्त लगभग सभी स्थानों, यहाँ तक कि पानी में भी इन मकड़ियों की कोई न कोई प्रजाति मिल ही जाएगी। और हो भी क्यों न? कम से कम इनकी तीस हज़ार प्रजातियों के बारे में तो हम वर्तमान समय में भी जानकारी रखते हैं। फाइलम आर्थोपोडा के आर्डर अरैक्निडा से संबंधित आठ पैरों वाले इन मांसाहारी जीवों की विभिन्न प्रजातियों का आकार ०.५ मिलीमीटर से ले कर ९ सेंटीमीटर तक हो सकता है। प्रजाति चाहे कोई भी हो, लगभग सभी में बारीक रेशमी तंतु के उत्पादन की क्षमता अवश्य होती है, साथ ही अधिकांश में मुख के पास विष-ग्रंथि युक्त डंक भी पाया जाता है। अधिकांश मकड़ियों के विष प्राय: कीट-पतंगों पर ही प्रभावी होते हैं। कुछ ही प्रजातियाँ ऐसी हैं जिनका विष रीढ़धारी जीवों तथा मनुष्यों के लिए कुछ सीमा तक हानिकारक है। जैसा कि पहले पहले भी बताया जा चुका है कि मकड़ियाँ दक्ष शिकारी होती हैं। इसके लिए ये तरह-तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इनके शिकार अधिकांशत: छोटे-मोटे कीट-पतंगे होते हैं। कभी ये उनके पीछे दौड़ती हैं तो कभी घात लगा कर उनका इंतज़ार भी करती हैं। लेकिन अधिकांश प्रजातियाँ रेशमी तंतुओं द्वारा विशिष्ट प्रकार के जाल का निर्माण कर शिकार को फँसाने में यकीन रखती हैं। फँसे शिकार को अपने विष-डंक से मार डालती हैं और फिर उसके चारों ओर पाचक-रस का स्त्राव कर उन्हें बाहर से ही पचाती हैं। इस प्रकार के बाह्य-पाचन के फलस्वरूप निर्मित पोषक-रस को ही ये चूस सकती हैं, क्योंकि ये ठोस भोजन नहीं ग्रहण कर सकती हैं। अब चूँकि जाल बना कर शिकार फँसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या-क्या हरबा-हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है। इनके उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियाँ (silk glands) होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है। सभी प्रजातियों में कुल मिला कर ७ प्रकार की रेशम उत्पादक ग्रंथियाँ पाई गई हैं परंतु किसी भी एक प्रजाति में सातों प्रकार की ग्रंथियाँ नहीं पाई जाती। ये ग्रंथियाँ मकड़ी के पश्च भाग में गुदा द्वार के नीचे अवस्थित पतली उँगलियों के रूप में चार से आठ कताई उपांगों (spinenrets) में खुलती हैं। इन कताई उपांगों के मुख पर हज़ारों नलिकाएँ (spigots) होती हैं। रेशम-ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुज़रता है तो पॉलीमराइज़ हो कर ठोस रेशम के तंतु मे परिवर्तित हो जाता है।
अब आइए इन किस्से-कहानियों से अलग हो कर इस बात पर गौर किया जाए कि हमारे वैज्ञानिक बंधु इन तंतुओं के व्यापारिक उत्पादन तथा उपयोग के संदर्भ में क्या-क्या जुगत भिड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो इन तंतुओं की रासायनिक संरचना तथा मज़बूती के संबंध मे विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की गई। कताई उपांगों से निकालता हुआ तरल रेशम किस प्रकार ठोस तंतु का रूप ले लेता है इसकी सही एवं पूरी जानकारी तो अभी हमें नहीं है, फिर भी इतना अवश्य पता है कि इसके निर्माण में भाग लेने वाले फाइबर्स प्रोटीन्स के अणु इस प्रकार व्यवस्थित हो जाते हैं कि तरल रेशम ठोस रेशमी तंतु में परिवर्तित हो जाता है। कितना मज़बूत होता है यह तंतु और किस हद तक लचीला? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए! समान मोटाई वाले स्टील के तंतु की तुलना में यह लगभग पाँच गुना अधिक मज़बूत होता है तथा लचीला इतना कि तनाव बढ़ने पर इसकी लंबाई ३० से ५० प्रतिशत तक बढ़ सकती है फिर भी यह नहीं टूटता। ये तंतु जल-प्रतिरोधी भी होते हैं एवं -४० डिग्री जैसे कम ताप पर भी नहीं टूटते। वास्तव में इन तंतुओं के निमाण में अडर्फ् ३ तथा अडर्फ् ४ जैसे दो प्रकार के प्रोटीन-अणुओं का उपयोग होता है।
आधुनिक संयंत्रों एवं संसाधनों की मदद से इस तंतु की संरचना एवं गुणवत्ता के बारे में और भी विस्तृत जानकारी पाने के उद्देश्य से युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सांता बारबरा के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व जो अनुसंधान कार्य किए, उससे कुछ नए तथ्य सामने आए हैं। एटोमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी तथा मॉलिक्युलर पुलर जैसे अत्याधुनिक संयंत्रों की सहायता से प्राप्त तस्वीरों एवं तनाव संबंधी आँकड़ों द्वारा उन्हें यह पता चला कि अन्य भार वाहक प्रोटीन्स की तुलना में इसके गुण कुछ अनूठे हैं। इस तंतु में स्फटिकीय (crystalline) तथा लचीलेपन (elasticity) का गुण एक साथ होता है। ये दोनों गुण इसके एक अणु में भी पाए जाते हैं। स्फटिकीय गुण इसे मज़बूती देता है तो लचीलापन तनाव बढ़ने पर इसे टूटने से बचाता है। जब इस पर भार देने के कारण तनाव बढ़ता है तो इसकी संरचना में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के बीच के बंध (bonds) स्वत: खुलते जाते हैं तथा किसी स्प्रिंग की तरह इसकी लंबाई बढ़ती जाती है। भार हटा लेने पर ये बंध स्वत: जुड़ने लगते हैं एवं तंतु पुन: अपने पुराने आकार में वापस आ जाता है।
इन तंतुओं के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण वैज्ञानिक इनमें उपयोगिता की अनगिनत संभावनाएँ देख रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान से ले कर रक्षा विज्ञान, यहाँ तक कि प्रक्षेपास्त्रों तक में इस तंतु के उपयोग की संभावनाएँ देख रहे हैं वैज्ञानिक। इन तंतुओं का उपयोग पैराशूट, बुलेटप्रूफ जैकेट तथा सुरक्षा कवच के लिए मज़बूत एवं लचीले कपड़े बनाने, मज़बूत तथा लचीली रस्सी एवं मछली पकड़ने के जाल बनाने, घावों को और भी प्रभावी ढंग से बंद करने तथा बेहतर प्लास्टर बनाने, सर्जरी मे काम आने वाले कृत्रिम टेंडन्स तथा लिगामेंटस बनाने में तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त बायोइंजीनियरिंग द्वारा बायोकेमिकली अथवा बायोलाजिकली सक्रिय रासायनिक पदार्थों के साथ मिला कर इनका उपयोग ऐसे नए प्रकार के रेशमी रेशों के उत्पादन में किया जा सकता है जो स्वयं में एक सीमा तक प्रज्ञावान होंगे और तब इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं, रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।
लेकिन ये सारे सपने तभी साकार हो सकते हैं जब हम इन तंतुओं या फिर इनसे मिलते-जुलते तंतुओं का उत्पादन वृहत पैमाने पर व्यापारिक रूप से कर सकें। इस संदर्भ में सभी संभावनाओं की जाँच-पड़ताल की जा रही है। इनमें से कुछ को लागू करना संभव ही नहीं है तो कुछ में हमें फिलहाल आंशिक सफलता ही मिल पाई है, परंतु भविष्य में पूर्ण सफलता की संभावना प्रबल है।
इनमें से सबसे अच्छा और आसान तरीका तो इन मकड़ियों को पाल कर उनसे उसी प्रकार रेशम प्राप्त करना था, जिस प्रकार हम रेशम के कीडों (Bombyx) को शहतूत के पत्ते पर पाल कर उनसे रेशम प्राप्त करते हैं। लेकिन मकड़ियाँ स्वभावत: शिकारी तथा अपने अधिकार क्षेत्र पर कब्ज़े के प्रति सजग होती हैं। साथ ही ये प्राय: स्वजाति-भक्षक भी होती हैं। अत: इन्हें पालना तथा इनसे रेशम प्राप्त करना संभव नहीं है।
दूसरी संभावना है- इन तंतुओं का कृत्रिम उत्पादन। इस कार्य के लिए हमें चाहिए ऐसी व्यवस्था जहाँ इस प्रकार के रेशमी तंतुओं के निर्माण में प्रयुक्त प्रोटीन्स या उससे मिलते-जुलते अन्य रासायनिक अणुओं का वृहत स्तर पर कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जा सके तथा ऐसी कताई मिले जहाँ इन अणुओं को संयोजित कर मकड़ियों के रेशमी तंतुओ के समान गुणवत्ता वाले तंतुओं का उत्पादन किया जा सके। इस दिशा में काफ़ी समय से किए जा रहे प्रयासों का फल आंशिक रूप से ही सही, अब वैज्ञानिकों को मिलने लगा है। इसका मुख्य श्रेय जेनेटिक इंजीनियरिंग तथा बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे त्वरित विकास को दिया जाना चाहिए।
मकड़ियों में रेशम के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के संश्लेषण करने वाले जीन्स की पहचान कर उसे जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तकनीक की मदद से अन्य जैव कोशिकाओं या जीवों में स्थानांतरित कर कृ्त्रिम रूप से ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में आंशिक रूप से सफलता मिली है। यह विधा इतनी आसान नहीं है। कारण, ऐसे जीन्स काफ़ी जटिल संरचना वाले हैं जिनमें एक ही प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज़ की शृंखला बार-बार दुहराई गई है तथा ये जीन्स प्रोटीन संश्लेषण में हमारी कोशिकाओं से भिन्न प्रकार के कोडॉन तंत्र का उपयोग करते हैं।फिलहाल हाल के कुछ प्रयोगों में इन जीन्स के कुछ भाग को इश्रिशिया कोलाई जैसे बैक्टीरिया, कुछ स्तनधारी जीवों तथा कीटों की कोशिकाओं में स्थानांतरित कर ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में सफलता हाथ लगी है। परंतु ऐसे प्रोटीन्स गुणवत्ता में प्राकृतिक प्रोटीन्स की बराबरी नहीं कर सकते तथा इनका उत्पादन बहुत थोड़ी मात्रा में हो रहा है। इन प्रोटीन्स को तंतु के रूप में परिवर्तित करना एक अलग चुनौती है। प्रयोगशाला में इस प्रकार संश्लेषित प्रोटीन्स के अणुओं द्वारा सिलिकॉन के सूक्ष्म कताई यंत्रो द्वारा जिस प्रकार के तंतुओं का निर्माण हो पाया है, वे प्रकृति रूप से उत्पादित २.५ मिलीमीटर- ४ मिलीमीटर व्यास वाले प्राकृतिक रेशम के तंतुओं की तुलना में काफ़ी मोटे- लगभग १० से ६० मिलीमीटर व्यास वाले हैं।
इस संदर्भ में इज़राइल के हेब्य्रू युनिवर्सिटी, म्युनिक युनिवर्सिटी तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों के दावे का उल्लेख करना प्रासंगिक भी है एवं उत्साहवर्धक भी। करेंट बायोलॉजी के २३ नवंबर २००४ के अंक में प्रकाशित एक लेख में वैज्ञानिकों की इस टीम ने दावा किया है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग की जटिल तकनीकि का उपयोग कर फाल आर्मी वर्म नामक कीट के कैटरपिलर लार्वा से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में न केवल इच्छित प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण करने में सफलता पाई गई है, बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं के निर्माण में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है।सबसे पहले तो इन लोगों ने गार्डेन स्पाइडर (Araneus diadematus) के जीन्स के उन अंशों को अलग किया जो मकड़ी के रेशमी तंतु के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन के अणुओं - अडर्फ् ३ तथा अडर्फ् ४ के संश्लेषण के लिए आवश्यक हैं। फिर इन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा कीटों को संक्रमित करने वाले बैकुलोवाइरस में स्थानांतरित किया गया। तत्पश्चात इन ट्रांसजेनिक वाइरसेज़ को फाल आर्मी वर्म नामक कीट के कैटरपिलर से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में स्थानांतरित कर वहाँ प्रवर्धन के लिए छोड़ दिया गया।

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