Re: इधर-उधर से
चिंतन
जैसा आचरण राजा का वैसा ही प्रजा का
(लेखक: योगेन्द्र जोशी)
मैंने पहले भी महर्षि बाल्मीकिविरचित रामायण में उल्लिखित राम-जाबालि संवाद की चर्चा की थी । उल्लिखित प्रसंग में मुनि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन्हें जनसमुदाय की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए उसकी अयोध्या वापसी की पार्थना मान लेनी चाहिये और तदनुरूप दिवंगत राजा को दिये अपने वचन भुला देना चाहिए । अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कतिपय तर्क भी पेश किये थे । श्रीराम प्रतिवाद करते हुए कहते हैं कि वचन तोड़ने से स्वर्गीय राजा को कोई क्लेश नहीं पहुंचेगा इसे मान लें तो भी समाज के व्यापक हित में ऐसा करना सर्वथा हानिकर होगा । उनका तर्क थाः
कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुवर्तते ।
यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ।।9।।
(रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 109)
(यदि मैं आपकी बात मान लूं तो भी यह कहना ही होगा कि पहले तो मुझे स्वेच्छाचारी मान लिया जायेगा, फिरदेखा-देखी) समाज में सभी स्वेच्छाचारी हो जायेंगे । (ऐसा इसलिए कि) राजागण जैसा आचरण प्रस्तुत करते हैं प्रजा वैसा ही स्वयं भी करती है ।
उपरिकथित तथ्य वस्तुतः शाश्वत और सार्वत्रिक मूल्य का है । आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नाम से तो कोई राजा नहीं है, किंतु राजा के स्थान पर हमारे जनप्रतिनिधि हैं, पूरी शासकीय व्यवस्था को चलाने वाले हैं । कही गयी बात उनके संदर्भ में भी मान्य है । वे जैसा आचरण करेंगे वैसा ही शासित सामान्य लोग भी करेंगे । चूंकि अनुकरणीय दृष्टांत प्रस्तुत करने वाले जनप्रतिनिधि अब ढूढ़े नहीं मिलते, इसलिए सदाचारण का समाज में लोप हो रहा है । दुर्भाग्य से उच्च पद पर आसीन व्यक्ति अब इस बात की परवाह प्रायः नहीं करता कि उसके कृत्यों को लेकर सामान्य जनों के बीच उसकी क्या छबि बन रही है । काश, ऐसा हो पाता कि शासकीय व्यवस्था के शीर्षस्थ लोग आम आदमियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश करते !
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