Re: यात्रा-संस्मरण
चोपटा और चुंगथांग
हम थांगू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिए रुके। दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में एक पतली नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है। लाचेन पहुँचते–पहुँचते बारिश शुरू हो चुकी थी। जैसे–जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी। गज़ब का नज़ारा था...
थोड़ी–थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी–मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर के अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली ...सफ़र के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। करीब ६ बजे तक हम चुंगथांग पहुँच चुके थे। यही से लाचुंग के लिए रास्ता कटता है।
चुंगथांग से लाचुंग का सफ़र डरे सहमे बीता। पूरे रास्ते चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक ६०–७० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हाँक रहा था। रास्ते का हर एक यू–टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था। निगाहें मील के हर पत्थर पर अटकती थीं, आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुए कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिख जाए। ७:३० बजे लाचुंग पहुँच कर हमने चैन की साँस ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज़्यादा थी कि चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिए।
लाचुंग की वह सुबह अनोखी थी। दूर–दूर तक बारिश का नामोनिशान नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था। पहाड़ के बीचों–बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर असली नज़ारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी आँखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। पहाड़ के ठीक सामने का हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाए खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं। थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यों प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवान ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक यह दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। अपने सफ़र के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका ये मेरी खुशकिस्मती है। कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। (फोटो बिलकुल नीचे)
यूमथांग घाटी
अगला पड़ाव यूमथांग घाटी था। ये घाटी लॉचुंग से करीब २५ कि .मी .दूर है और यहाँ के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं। दरअसल यह घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की २४ अलग–अलग प्रजातियों के लिए मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुए हम यूमथांग की ओर चल पड़े। सारा रास्ता बैंगनी रंग के इन छोटे–छोटे फूलों से अटा पड़ा था। करीब डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम यूमथांग में थे। रास्ते में ही हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गए थे। मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियाँ लगने लगती हैं। पर पूरी तरह से ये खिलते हैं मई के महीने में, जब पूरी घाटी इनके लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है।
चूँकि यह घाटी १२,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहाँ पहुँचते ही गायब हो गई थी। घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह रही थी। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल मटोल पत्थरों के ढेर के साथ–साथ हम सब काफ़ी देर तक चलते रहे। किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ़ भी गिरी होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ गिरी दिख ही गई। पास में ही सल्फर युक्त पानी का सोता था पर वहाँ तक पहुँचने के लिए इस पहाड़ी नदी यानि यहाँ की भाषा में कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को कैमरे से छू लिया। गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट चले।
भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते में तिस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिए हम गाड़ी से उतरे। काफी ऊँचाई से ली गई इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के साथ नीचे बहती हुई तिस्ता को आप देख सकते हैं। तिस्ता से ये इस सफ़र की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये ज़रूर थी। सांझ ढलते–ढलते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।अपना अगला दिन नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिए जहाँ प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।
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