19-07-2013, 08:35 PM
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मेरी कहानियाँ / कातरा
मेरी कहानियाँ / कातरा
माँ-बाप ने बड़े लाड़-प्यार और दुलार से पाला था मुझे. अपने इस दुलार के अनुरूप ही उन्होंने मेरी शादी बड़ी धूम धाम से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर नगर के एक स्वस्थ, सुन्दर और योग्य युवक के साथ की थी. उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी.
मुझे भी जैसे मन मांगी मुराद मिल गई थी. पति का प्यार पा कर मैं धन्य हो गयी थी. दो छोटी ननदें तो खाना तक मेरे हाथ से खाती थीं. सास श्वसुर आशीर्वाद देते न थकते थे. जीवन का हर क्षण आनंद से व्यतीत हो रहा था. चार माह पंख लगा कर कैसे उड़ गए, पता ही नहीं लगा. लेकिन एक दिन अचानक मुझ पर गाज गिर पड़ी. एक ही झटके से मेरा सुन्दर, हँसता, खेलता संसार झुलस गया. सब कुछ लुट गया, समाप्त हो गया. मेरे पति अपनी फैक्टरी की मजदूर यूनियन के नेता थे. अफसरों के साथ उनकी किसी मामले को ले कर तना तनी चल रही थी. मालिकान उससे रुष्ट थे. तनाव का वातावरण उत्पन्न हो गया था.
रोज की तरह उस दिन भी हम लोग अपने घर में सोये हुए थे. वह एक भयानक रात थी जब काली रात के अंधकार में द्वार पर एक दस्तक हुयी. देखा तो एक आदमी था. उसने सूचना दी कि फैक्ट्री में एक कर्मचारी को मशीन से गंभीर चोटे आई है. मैंने इन्हें रोकने की बहुत कोशिश की. वास्तव में मुझे डर लगने लगा था और पता नहीं क्यों मेरे मन में अजीन अजीब तरह की आशंकाएं सिर उठने लगीं थी. वे नहीं माने, उस व्यक्ति के साथ चल दिए. उस रात वह जो घर से बाहर गए, तो लौट कर वह तो नहीं आये; उनका पार्थिव शरीर ही घर वापिस आया. सुबह उनकी लहू लुहान देह शहर के बाहर गन्ने के खेतों में पायी गई.
मैं संज्ञा शून्य हो गई थी. इस अवस्था में रहते हुए मैंने पाया कि मैं अपने लोगों के बीच ही अजनबी होती जा रही हूँ. अब वो पहले सा वात्सल्य न झलकता था सास श्वसुर के व्यवहार में. इसकी जगह एक अजीब सी काटने वाली तटस्थता ने ले ली थी. कहीं आग्रह न था. शनै: शनै: मैंने पाया कि उन लोगों ने जान बूझ कर इस दूरी को बढ़ावा दिया था.मेरे लिए उनका आश्रय भी दूर होता गया. मैं इस अंधकार में अकेली भटकने लगी थी.मेरे हरे भरे जीवन में जैसे कातरा (फसलों को नष्ट कर देने वाला कीड़ा) लग गया था.
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