Re: डायरी के पन्ने
अपने ट्रेनिंग काल में हम लोगों को सिखाया गया था कि कक्षा की छात्र-संख्या के अनुरूप ही अपने स्वर को नियन्त्रित रखना चाहिए। नवीं और दसवीं कक्षा में क्रमशः 6 और 5 छात्राएँ थीं। अतः इतनी नगण्य संख्या के बीच मेरा कण्ठस्वर कक्षा के बाहर नहीं पहुंचता। मिस मार्टिन अपने राउण्ड पर मेरी कक्षा के बाहर खड़ी हो मेरी आवाज को कान लगा कर सुनने की कोशिश करतीं, अन्त में उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि मैं अपनी छात्राओं को पढ़ाती नहीं हूँ – केवल बातचीत ही करती हूँ, उनसे। एक बार कार्यवश वह विभागीय कार्यालय पहुँची तब दीदी उनसे पूछ बैठीं ‘‘मिस श्रीवास्तव कैसा काम कर रही हैं?” मेरी शिकायत दीदी (इन्स्पैक्ट्रेस) से करने का इससे उपयुक्त अवसर और कब आता? दीदी ने घर पर मुझे यह जानकारी दी थी। फिर क्या था। मैं मिस मार्टिन से जा भिड़ी। उनसे नम्र स्वर में निवेदन किया कि वे मेरी कक्षा के अन्दर आ कर बैठें और सुनें कि मैं लड़कियों को किस तरह पढ़ाती हूँ और कितनी बातें करती हूँ। मेरे इस अनुरोध को तत्काल मान लेना उनकी शान के खिलाफ था। नाक का सवाल जो था। लगभग एक सप्ताह बाद वह मेरी कक्षा में लगभग दस मिनट बैठीं, बिना कुछ टिप्पणी किए उठ कर चलती बनीं। कुछ ही समय में मैं अपनी छात्राओं से ऐसी घुल-मिल गई कि हमारी वरिष्ठ सहकर्मी मिस पॉल, मिस करकरे आदि ने एक अभियान सा छेड दिया कि यह लड़कियों के बीच लड़की ही जैसी रहती है, चोटी करती है, रंग-बिरंगी चूड़ी पहनती है – उनसे हँस-मिल बातें करती हैं, आदि। रिसेस में ये छात्राएँ कभी-कभी मुझे खींच कर अपने बीच अपना खाना खिलाने ले जाने लगीं। विशेष रूप से किसी पर्व-त्यौहार पर अपने व्यंजन मुझे खाने को बाध्य करती थीं। कक्षा के बाहर यदि अध्यापक-छात्र के सम्बन्ध में कुछ निकटता आ जाए, यह मुझे आपत्तिजनक मुद्दा कभी नहीं लगा। ‘’डिस्टेन्स ऑव डिग्निटी बिटवीन टीचर एण्ड टॉट।” यह मेरे लिए ऐसा गुरु-मन्त्र था जिसे मैंने सदा-सदा के लिए आत्मसात कर रखा था। हाँ, इतना अवश्य कह दूँ कि यह मन्त्र केवल कक्षा तक ही सीमित था ***
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:35 AM.
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