Re: कलियां और कांटे
बिसरे ज़ख्मों पर नमक जैसे मेरे प्रिय बेटे,
तुम्हारा पिछला खत पढकर यह संबोधन दिया है जिसमें तुमने घर की याद के बाबत बात पूछी है.
नितांत एकाकी क्षणों में घर की याद आ जाती है. जैसे सूप में आपने आँखें फटकते हुए, फटे हुए ढूध का खो़या खाने में नमकीन आंसू का जायका तलाशते हुए या चावल चढाने से पहले उसे चुनते हुए हुए आनाज और कंकड के फर्क पर शंकित होते हुए... फिर अपनी पत्थर होती आँखों को कोसते हुए...
अबकी साल भी आम के पेड़ में मंजर खूब आया है और सांझ ढाले उनसे कच्चे आम की खुशबु घर के याद के तरह आनी शुरू हो गयी है... अब यह कमबख्त रात भर परेशान करेगी.
तुम्हारे घरवालों ने मुझे कहाँ ब्याह दिया, हरामी ने जिंदगी खराब कर दी. ससुराल जेल की चाहरदीवारी लगती है और मैं सजायाफ्ता कैदी सी.
मैंने ना ही कोई विवादास्पद बयान दिया, कोई विद्रोही तेवर वाली किताब ही लिखी है. कोई सियासी मुजरिम हूँ जो मुझे ससुराल में नज़रबंद रखा गया है.
मैं क्यों अपने घर से निर्वासित जीवन जी रही हूँ ? कहीं यह तुम दोनों दोनों पक्षों की मिलीभगत तो नहीं ??? मर्द तो दोनों जगह कोमन ही होते हैं ना ???
टेशन से छूटने वाली गाडी में भी उतना ईंधन नहीं होगा जितना भावुक ज्वलनशील पदार्थ एक ब्याही औरत के पास होता है... फिर भी रेल है कि आगे बढ़ ही जाती है पर मैं ???
भैया अपनी जिंदगी में सो कैसा फंसा है जो बाईस साल में कभी खुशी से मिलने नहीं आया और बाबूजी ने कोई चिठ्ठी नहीं लिखी.
तुम्हारे बाप को मेरे बेटे की फिकर नहीं है; वो यह भी नहीं जानते कि इस जून में उसने इंटर पास कर लिया है पर मुझे तुम्हारी याद आती है. मेरे दुश्मन बेटे, मैं उम्मीद करूँ तुमसे कि तुम इस परम्परा को तोडेगे और बूढी होती अपनी दीदी से मिलने आओगे!
अंत में, सुना है तुम्हारे बहन की भी शादी होने वाली है, और तुम उससे बहुत प्यार करने का दंभ भी भरते हो ? तो क्या मुझे ‘जैसे को तैसा' वाली शाप देने की जरुरत है ???
लिखना
तुम्हारी अभागी दीदी
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