Re: मेरी कहानियाँ / एक टुकड़ा मौत
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निरक्षर स्त्री पुरुषों की अलग अलग कक्षाएं चलने लगीं. बहुत से सुशिक्षित व्यक्तियों ने भी बिना वेतन के अपनी सेवायें इस केंद्र को देना स्वीकार किया. इस कार्यक्रम के अच्छे परिणाम सामने आने लगे.
दादा जी का सभी बहुत आदर करते. वे एक घंटे की कक्षा भी लिया करते थे.
वर्षाकाल में बारिश की तीव्रता से बहुधा सड़कें टूट-फूट जाती हैं परन्तु अनुकूल मौसम आने पर उनकी मरम्मत कर दी जाती है जिससे यातायात सुचारू रखना संभव होता है. दादा जी का मन भी उन सड़कों की भांति ही था जिसे अब एक मकसद मिल गया था, वे प्रसन्न रहने लगे थे और उनमे एक नई शक्ति का उदय हुआ था. उन्होंने देखा कि दूसरे दूसरे न हो कर अपनों से भी अधिक नज़दीक आ गये थे. सीधे सरल लोगों में उनकी तबीयत लगी रहती.
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अशोक एम बी बी एस की अंतिम वर्ष की परीक्षा दे कर आया था. मालूम हुआ दादा जी बीमार हैं, झट से मिलने जा पहुंचा. दादा जी ने उसे छाती से लगा लिया. लगा जैसे फूल से उसकी गंध मिल रही हो. प्रिन्सिपल साहब भी वहीँ बैठे थे. दादा जी ने भीगे स्वर से कहा,
“इस लड़के से मैंने सीखा कि ज़िन्दगी निरंतर चलते रहने का ही दूसरा नाम है. ठहरना तो सिर्फ एक बहाना है, एक टुकड़ा मौत ...”
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