Re: मुहावरों की कहानी
युवराज की करुण पुकार कानों में पड़ते ही बोधिसत्व का ध्यान टूट गया। वे झट नदी में कूद पड़े और उस लकड़ी को किनारे खींच लाये जिसने युवराज और तीन अन्य प्राणियों की जान बचायी थी। उन्होंने अग्नि जला कर सबको गरमी प्रदान की, फिर सबके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। सबसे पहले उन्होंने छोटे प्राणियों को भोजन दिया, तत्पश्चात युवराज को भी भोजन खिलाकर उसके आराम का भी प्रबन्ध कर दिया।
इस प्रकार वे सब बोधिसत्व के यहाँ दो दिनों तक विश्राम करके पूर्ण स्वस्थ होने के बाद कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने घर चले गये। तोते ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘महानुभाव! आप मेरे प्राणदाता हैं। नदी के किनारे एक पेड़ का खोखला मेरा निवास था, लेकिन अब वह बाढ़ में बह गया है। हिमालय में मेरे कई मित्र हैं।
यदि कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में खड़े होकर पुकारिये। मैं मित्रों की सहायता से आप की सेवा में अन्न और फल का भण्डार लेकर उपस्थित हो जाऊँगा।''
‘‘मैं तुम्हारा वचन याद रखूँगा।'' बोधिसत्व ने आश्वासन दिया।
साँप ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘मैं पिछले जन्म में एक व्यापारी था। मैंने कई करोड़ रुपये की स्वर्ण मोहरें नदी के तट पर छिपा कर रख दी थीं। धन के इस लोभ के कारण इस जन्म में सर्प योनि में पैदा हुआ हूँ। मेरा जीवन उस खज़ाने की रक्षा में ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसे मैं आप को अर्पित कर दूँगा। कभी मेरे यहॉं पधार कर इसका बदला चुकाने का मौका अवश्य दीजिए।''
इसी प्रकार चूहे ने भी वक्त पड़ने पर अपनी सहायता देने का वचन देते हुए कहा, ‘‘नदी के पास ही एक पहाड़ी के नीचे हमारा महल है जो तरह-तरह के अनाजों से भरा हुआ है। हमारे वंश के हजारों चूहे इस महल में निवास करते हैं। जब भी आप को अन्न की कठिनाई हो, कृपया हमारे निवास पर अवश्य पधारिए और सेवा का अवसर दीजिए। मैं फिर भी आप के उपकार का बदला कभी न चुका पाऊँगा।''
सबसे अन्त में युवराज ने कहा, ‘‘मैं कभी-न-कभी अपने पिता के बाद राजा बनूँगा। तब आप मेरी राजधानी में आइए। मैं आप का अपूर्व स्वागत करूँगा।''
कुछ दिनों के बाद ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गई और युवराज काशी का राजा बन गया। राजा बनते ही प्रजा पर अत्याचार करने लगा। सच्चाई और न्याय का कहीं नाम न था। झूठ और अपराध बढ़ने लगे। प्रजा दुखी रहने लगी।
यह बात बोधिसत्व से छिपी न रही। उसे राजा का निमंत्रण याद हो आया। उसने सबसे पहले राजा के यहाँ जाने का निश्चय किया। वे एक दिन राजा से मिलने के लिए काशी पहुँचे।
बोधिसत्व नगर में प्रवेश कर राजपथ पर पैदल चल रहे थे। तभी हाथी पर सवार होकर राजा सैर के लिए जा रहा था। उसने बोधिसत्व को पहचान लिया और तुरत अपने अंगरक्षकों को आदेश दिया, ‘‘इस साधु को पकड़कर खंभे से बाँध दो और सौ कोड़े लगाओ और इसके बाद इसको फाँसी पर लटका दो। यह इतना घमण्डी है कि इसने जान बूझ कर मेरा अपमान किया था।
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