Re: ~!!आनन्दमठ!!~
बंगाब्द सन् 1176 के गरमी के महीने में एक दिन, पदचिन्ह नामक एक गांव में बड़ी भयानक गरमी थी। गांव घरों से भरा हुआ था, लेकिन मनुष्य दिखाई नहीं देते थे। बाजार में कतार-पर-कतार दुकानें विस्तृत बाजार में लंबी-चौड़ी सड़कें, गलियों में सैकड़ों मिट्टी के पवित्र गृह, बीच-बीच में ऊंची-नीची अट्टालिकाएं थीं। आज सब नीरव हैं; दुकानदार कहां भागे हुए हैं, कोई पता नहीं। बाजार का दिन है, लेकिन बाजार लगा नहीं है, शून्य है। भिक्षा का दिन है, लेकिन भिक्षुक बाहर दिखाई नहीं पड़ते। जुलाहे अपने करघे बंद कर घर में पड़े रो रहे हैं। व्यवसायी अपना रोजगार भूलकर बच्चों को गोद में लेकर विह्वल हैं। दाताओं ने दान बंद कर दिया है, अध्यापकों ने पाठशाला बंद कर दी है, शायद बच्चे भी साहसपूर्वक रोते नहीं है। राजपथ पर भीड़ नहीं दिखाई देती, सरोवर पर स्नानार्थियों की भीड़ नहीं है, गृह-द्वार पर मनुष्य दिखाई नहीं पड़ते हैं, वृक्षों पर पक्षी दिखाई नहीं पड़ते, चरनेवाली गौओं के दर्शन मिलते नहीं हैं, केवल श्मशान में स्यार और कुत्ते हैं, एक बहुत बड़ी आट्टालिका है, उसकी ऊंची चहारदीवारी और गगन-चुंबी गुंबद दूर से दिखाई पड़ते हैं। वह अट्टालिका उस गृह-जंगल में शैल-शिखर-सी दिखाई पड़ती है। उसकी शोभा का क्या कहना है- लेकिन उसके दरवाजे बंद है, गृह मनुष्य-समागम से शून्य है, वायु-प्रवेश में भी असुविधा है। उस घर के अंदर दिन-दोपहर के समय अंधेरा है; अंधकार में रात के समय एक कमरे में, फू ले हुए दो पुष्पों की तरह एक दंपति बैठे हुए चिंतामगन् हैं। उनके सामने अकाल का भीषण रूप है।
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