Re: ~!!आनन्दमठ!!~
जेठ का महीना है। भयानक गर्मी से पृथ्वी अगिन्मय हो रही है; हवा में आग की लपट दौड़ रही है, आकाश गरम तवे की तरह जल रहा है, राह की धूल आग की चिनगारी बन गई है। कल्याणी के शरीर से पसीने की धार बहने लगी; कभी पीपल के नीचे, कभी बड़ के नीचे, कभी खजूर के नीचे छाया देखकर तिलमिलाती हुई बैठ जाती है। सूखे हुए तालाबों का कीचड़ से सना मैला जल पीकर वे लोग राह चलने लगे। लड़की महेंद्र की गोद में है- समय समय पर वे उसे पंखा हांक देते हैं। कभी घने हरे पत्तों से दाएं, सुगंधित फूलों वाले वृक्ष से लिपटी हुई लता की छाया में दोनों जन बैठकर विराम करते हैं। महेंद्र ने कल्याणी को इतना सहनशील देखकर आश्चर्य किया। पास के ही एक जलाशय से वस्त्र को जल से तर कर महेंद्र ने उससे कन्या और पत्**नी का जलता माथा और मुंह धोकर कुछ शांत किया।
इससे कल्याणी कुछ आश्वस्त अवश्य हुई, लेकिन दोनों ही भूख से बड़े विह्वल हुए। वे लोग तो उसे भी सहने लगे, लेकिन बालिका की भूख-प्यास उनसे बर्दाश्त न हुई, अत: वहां अधिक देर न ठहरकर वे लोग फिर चल पड़े। उस आग के सागर को पार कर संध्या से पहले वे एक बस्ती में पहुंचे। महेंद्र के मन में बड़ी आशा थी कि बस्ती में पहुंचकर वे अपनी पत्**नी और कन्या की शीतल जल से तृप्त कर सकेंगे और प्राणरक्षा के निमित्त अपने मुंह में भी कुछ आहार डाल सकेंगे। लेकिन कहां? बसती में तो एक भी मनुष्य दिखाई नहीं पड़ता। बड़े-बड़े घर सूने पड़े हुए हैं, सारे आदमी वहां से भाग गए हैं। इधर-उधर देखकर एक घर के भीतर महेंद्र ने स्त्री-कन्या को बैठा दिया। बाहर आकर उन्होंने जोरों से पुकारना शुरू किया, लेकिन उन्हें कोई भी उत्तर सुनाई न पड़ा। तब महेंद्र ने कल्याणी से कहा-तुम जरा साहसपूर्वक अकेली रहो; देखूं शायद कहीं कोई गाय दिखाई दे जाए। भगवान श्रीकृष्ण दया कर दें तो दूध ले आएं। यह कहकर महेंद्र एक मिट्टी का बरतन हाथ में लेकर निकल पड़े। बहुतेरे बरतन वहीं पड़े हुए थे।
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