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Originally Posted by yuvraj
यदि जरूरत के लिए पेड़ काटा जा सकता है तो भोजन और जरूरत के लिए पाले जाने वाले पशु-पक्षियों ko क्यू नहीं ...
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वो इसलिए युवराज जी की पशुओ की वेदनाओ की अनुभूति करना सहज है क्योंकि वो चिल्लाकर , चीखकर हमें आहसास करते हैं ! दूसरी बात यह की वनस्पतियो का ज़न्म स्रष्टि में भोज्य के लिए ही हुआ है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण मनुष्यों के दांत हैं ! स्रष्टि भी हमें शाकाहारी होने का ही संकेत देती है!
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Originally Posted by abhay
बात तों आपकी बिलकुल सही है मगर आज के यूग में मानब से बड़ा दानब कोई नहीं है ! अगर पीछे से सोचा जाये तों १०० में से ५० लोग राछस योनी में आते है ! मगर आज का इतिहास ही दूसरा है ! दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आज के मानब ने नहीं खाया हो ! अब यहाँ पे शाकाहार मानब न के बराबर है ! चाणक्य ने कहा है ज्ञान के लिए कुसल गुरु की जरुरत होती है उसी तरह सरीर में मांस की पूर्ति के लिए मांस की जरुरत होती है ! चाणक्य ने तों कुछ और कहा था मगर मैंने इसे बदल के कुछ इस तरह लिखा है !
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क्या अभय जी कोई शाकाहारी मनुष्य अपना पूरा जीवन नहीं जीता? क्या वो दूसरों (मांसाहारियो ) से निर्बल होता है ? पर वैसे भी चाणक्य का राजनीतिशास्त्र अच्छा था न की शरीरविज्ञान !