सनक, ना चीन्है ठांव-कुठांव
सनक, ना चीन्हैठांव-कुठांव
ओमप्रकाश कश्यप
उस समय भी वे सनकाए हुए थे. सनक की खनक के साथ-साथ यात्रा आगे बढ़ रही थी. मंत्री जी नई सनक थी पागलों के बीच भाषण देकर उन्हें अपना बनाने की. देश में पागलों की संख्या कम नहीं. कवि-कलाकार और दूसरे ऐसे ही संस्कृति-कर्मियों, सरकार से लोककल्याण की अपेक्षा रखने वालों तथा इन मुद्दों पर सरकार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वालों को सरकार वैसे ही पागलों की गिनती में रखती है. इन लोगों को अपना बना लेना, उन्हें अपनी सरकार के पक्ष में लाने से न केवल पार्टी हाईकमान को खुश किया जा सकता था, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रशंसा बटोरी जा सकती थी. कार्यक्रम की शुरुआत से पहले उन्होंने हमेशा की तरह उसकी चर्चा एक पत्रकार सम्मेलन में की. उस समय एक सिरफिरे ने तपाक से सलाह दी कि उन्हें अपना अभियान संसद-भवन से शुरु करना चाहिए. मंत्री जी उस पत्रकार को विरोधियों का जासूस कहकर निकलवा दिया. अपने अभियान के श्रीगणेश के लिए राजधानी के पागलों के सबसे बड़े अस्पताल को चुना. हर सनक में उनका साथ निभाने वाला उनका सेक्रेटरी भी उनकी नई सनक को समझ नहीं पा रहा था-
‘सर पागलों में इतनी अक्ल ही कहां कि आपके भाषणों की गंभीरता को समझ सकें.’ मन के डर को छिपाते हुए सेकेटरी ने हौले से कहा.
‘देखते हैं…’
‘पागलों को वोट देने का अधिकार नहीं होता, सर…’ सेकेटरी ने फिर हतोत्साहित किया.
‘शहर की दीवारों पर पोस्टर तो चिपक गए हैं?’ मंत्री जी इतने सनकाए हुए थे कि सेक्रेटरी की सलाह गोल कर गए.
‘पागलों का कोई भरोसा नहीं है. आपको कुछ हो गया तो?’
‘सारे अखबार वालों को सूचना भेज दी…?’
‘मैंने पता लगाया है. कई पागल तो हिंसक हैं. वहां आपकी जान को खतरा हो सकता है.’
‘चैनल वालों को भी बता दिया न?’
‘प्लीज, जाने से पहले एक बार फिर सोच लीजिए सर.’
‘हर कैमरामेन के पीछे अपना आदमी रहना चाहिए. एक भी फोटो खराब न आने पाए…’
‘वो सब तो ठीक है सर, लेकिन….
‘चैनलियों से कह देना कि ऐसी-वैसी बात मुंह से निकल जाए तो दबा लें. हम उनका ध्यान रखेंगे.
‘यस सर…किंतु!’ सेकेटरी की हिम्मत पस्त होने लगी.
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