Re: माँ: एक कालजयी रचना के एक सौ सात साल
‘‘ठीक बात है!’’ किसी ने दबी ज़बान में समर्थन किया.
‘‘बंद कर दो इसका मुँह!?
भीड़ के पीछे माँ ने उस जासूस और दो राजनीतिक पुलिसवालों को देखा और वह जल्दी-जल्दी बचे हुए पर्चे बाँटने लगी. लेकिन जब उसका हाथ सूटकेस के पास पहुंचा, तो किसी दूसरे के हाथ से छू गया.
‘‘ले लो, और ले लो! उसने झुके-झुके कहा.
‘‘चलो, हटो यहां से!’’ राजनीतिक पुलिसवालों ने लोगों को ढकेलते हुए कहा. लोगों ने अनमने भाव से पुलिसवालों को रास्ता दिया; वे पुलिसवालों को दीवार बनाकर पीछे रोके हुए थे; शायद वे जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे थे. लोगों के हृदय में न जाने क्यों इस बड़ी-बड़ी आँखों और उदास चेहरे तथा सफ़ेद बालों वाली औरत के प्रति इतना अदम्य आकर्षण था.
जीवन में वे सबसे अलग-थलग रहते थे, एक-दूसरे से उनका कोई संबंध नहीं था, पर यहां वे सब एक हो गए थे; वे बड़े प्रभावित होकर इन जोश-भरे शब्दों को सुन रहे थे; जीवन के अन्यायों से पीड़ित होकर शायद उनमें से अनेक लोगों के हृदय बहुत दिनों से इन्हीं शब्दों की खोज में थे. जो लोग माँ के सबसे निकट थे वे चुपचाप खड़े थे; वे बड़ी उत्सुकता से उसकी आँखों में आँखें डालकर ध्यान से उसकी बातें सुन रहे थे और वह उनकी साँसों की गर्मी चेहरे पर अनुभव कर रही थी.
‘‘खिसक जा यहाँ से, बुढ़िया!’’
‘‘वे अभी तुझे पकड़ लेंगे!..’’
‘‘कितनी हिम्मत है इसमें!’’
‘‘चलो यहां से! जाओ अपना काम देखो!’’ राजनीतिक पुलिसवालों ने भीड़ को ठेलते हुए चिल्लाकर कहा. माँ के सामने जो लोग थे वे एके बार कुछ डगमगाए और फिर एक-दूसरे से सटकर खड़े हो गए.
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